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स्वामी विवेकानंद की संक्षिप्त जीवनी
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म की महत्वता और मूल्यों से पूरे विश्व को परिचित कराया। बचपन से ही इनके मन में सत्य को जानने की अभिलाषा थी और जैसे ही इन्हे पता चलता कि आस पास कोई संत सन्यासी आये हैं, तो वे भागकर उनके पास जाते और मन में छुपे प्रश्नों का उत्तर पाने का प्रयास करते। इसी प्रकार अपने ज्ञान का विस्तार करते हुए उन्होंने बालक नरेंद से विश्व गुरु स्वामी विवेकानंद बनने तक का सफर तय किया।
स्वामी विवेकानंद आरंभिक जीवन Swami Vivekananda Early Life
स्वामी विवेकानंद का असली नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। बालक नरेंद्र का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ। नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। विश्वनाथ दत्त कोलकाता के उच्च न्यायलय में वक़ालत किया करते थे। विश्वनाथ उदार सोच के व्यक्ति थे और पश्चिमी संस्कृति में विश्वास रखते थे। इसी के चलते उन्होंने अपने पुत्र की पढाई लिखाई अंग्रेजी शैली में करवाने का प्रयास किया। वहीं दूसरी ओर माता धार्मिक विचारों की महिला थीं, जो दिन भर भगवान् शिव की उपासना में व्यस्त रहती थी।
स्वामी विवेकानंद की शिक्षा Swami Vivekananda Education
1877 में स्वामी जी का परिवार कलकत्ता से रायपुर आ गया। इसी दौरान 1880 में इन्होने जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूशन से यूरोप के इतिहास और पश्चिमी दर्शन का अध्ययन भी किया। इसके साथ ही इनकी रूचि बंगाली साहित्य और संस्कृत ग्रंथो की ओर भी बढ़ने लगी। 1881 में इन्होने ललित कला की परीक्षा पास की और 1884 में प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की डिग्री पूरी की।
स्वामी विवेकानंद का आध्यात्म की ओर झुकाव
माता पिता के संस्कारों और घर के धार्मिक वातावरण के चलते बालक नरेंद्र का मन बचपन से ही आध्यात्म की ओर झुकने लगा था। 1880 में वे केशव चन्द्र सेन के साथ ब्रम्ह समाज से जुड़ गए। यहाँ उन्होंने सेन्स बैंड ऑफ़ होप नामक संगठन के साथ काम करना शुरू कर दिया। यह संगठन युवाओं को शराबबंदी और धूम्रपान जैसी आदतों को छोड़ने के लिए प्रेरित करता था। जल्दी ही नरेन्द्र का मन ब्रम्ह समाज से ऊब गया।
रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात Swami Vivekananda and Ramkrishna Paramhans
नरेंद्र अपना ज्यादातर वक्त काली माता की उपासना में बिताते थे। उन्हें साधु सन्यासियों से संवाद करना और उनके जरिये अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढने का प्रयास करना अच्छा लगता था। 1881 में उनकी मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से हुई। उन्हें पता चला कि कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण परमहंस नाम के संत आए हैं। अपने एक मित्र के आग्रह पर वे बिना इच्छा के उनसे मिलने चले गए, लेकिन रामकृष्ण के व्यक्तित्व और ज्ञान का नरेंद्र पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने रामकृष्ण को अपना गुरु बना लिया। रामकृष्ण ने उन्हें सन्यास ग्रहण करके सनातन हिन्दू धर्म को विश्व में पुनर्जाग्रत करने के लिए कहा और इस तरह नरेंद्र अब स्वामी विवेकानंद बन गए।
काली माता से साक्षात्कार Swami Vivekananda and Kali Mata
1884 में विवेकानंद के पिता का स्वर्गवास हो गया और परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। ऐसे में विवेकानंद अपने परिवार की कुछ मदद नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि उनका सारा समय काली माता की उपासना में निकल जाता था। रामकृष्ण ने जब विवेकानंद की ख़राब स्थिति देखी तो उन्होंने विवेकानंद को एक कमरे में भेजा और कहा कि वहां तुम्हें काली माता स्वयं मिलेंगी। तुम्हे अपने परिवार के लिए जो मांगना हो, मांग लेना। विवेकानंद तीन बार उस कमरे में माता से मिलने गई, लेकिन तीनों बार परिवार के लिए कुछ न मांग सके और सिर्फ ज्ञान, वैराग्य और भक्ति मांगी।
अमेरिका यात्रा और शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन Swami Vivekananda and Chikago Dharma Sammelan
1886 में रामकृष्ण परमहंस का निधन हो गया। अपने गुरु के पदचिन्हों पर चलते हुए विवेकानंद ने देश भर में घूम कर सनातन धर्म का प्रचार किया। 1893 में सिकंदराबाद में उन्होंने अपना पहला सार्वजानिक व्याख्यान दिया। इसी बीच 1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मलेन आयोजित हुआ। रामनाड के महंत के सुझाव पर विवेकानंद ने इसे हिन्दू धर्म के मूल्यों और विचारों को दुनिया तक पहुँचाने के लिए सही वक्त के रूप में पाया और वे सम्मलेन में हिस्सा लेने के लिए निकल पड़े।
जिस दिन स्वामी विवेकानंद का भाषण होने वाला था, लोग पहले से उन्हें सुनने के लिए उतावले थे। शहर पर उनके नाम के पोस्टर लगे हुए थे। कुछ लोगों ने कोशिश की कि भारत से आये इस संत को बोलने का समय ही न मिल पाए, लेकिन आख़िरकार एक अमेरिकी ने स्वामीजी की मदद की और उन्हें बोलने का मौका मिल ही गया।
स्वामी जी ने अपने भाषण की शुरुआत मेरे अमेरिकन भाइयों और बहनों कहते हुए की और इसी के साथ उन्होंने लोगों मन्त्र मुग्ध कर दिया। इससे पहले किसी भी विद्वान ने अपने भाषण की शुरुआत इतनी आत्मीयता से नहीं की थी। 7000 लोग उनके स्वागत में उठ खड़े हुए। इस पर स्वामी जी ने कहा कि आपके स्वागत से मेरा ह्रदय प्रसन्नता से भर गया है। मैं आपका विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता की ओर से आभार प्रकट करता हूँ। स्वामी जी ने कई तर्कों और उदाहरणों से यह साबित कर दिया कि हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जो सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए आवश्यक है।
इसके बाद स्वामी जी की कीर्ति अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा सहित कई देशों में फ़ैल गई। 1893 से 1896 तक वे अमेरिका और इंग्लैंड में घूम घूम कर व्याख्यान देने लगे। उन्होंने हॉवर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्यान दिया और लन्दन में धार्मिक कक्षाओं का आयोजन किया।
भारत वापसी और रामकृष्ण मिशन की स्थापना Ramkrishna Mission
1897 में वे भारत वापस आ गए। रामेश्वरम में उनका भव्य स्वागत किया गया और हजारों लाखों लोग उनका अभिनन्दन करने के लिए देश की विभिन्न हिस्सों से आ पहुंचे। कलकत्ता पहुँच कर स्वामी जी ने अपने गुरु की स्मृति में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और इसके पहले अध्यक्ष बने। कलकत्ता के पास बेलुड़ में मिशन का मुख्य कार्यालय बनाया गया। रामकृष्ण मिशन का मुख्य कार्य वेदांत धर्म का प्रचार और लोगों की सेवा है।
1899 में वे फिर से विदेश यात्रा पर निकल गए। सबसे पहले वे अमेरिका के सेन फ्रैंसिस्को पहुंचे और वहाँ वेदांत समिति की स्थापना की। इसके पश्चात वे यूरोप के लिए निकल गए। अपने यूरोप प्रवास के दौरान इन्होने विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस और मिस्र आदि देशों में हिन्दू धर्म का प्रचार किया और 1900 में भारत लौट आए।
स्वामी विवेकानंद की मृत्यु Death of Swami Vivekananda
भारत वापसी के बाद स्वामी विवेकानंद बीमार रहने लगे और 4 जुलाई 1902 को अपने शिष्यों से बोले कि आज उनकी अपने गुरु के चरणों में जाने की इच्छा है। इसके बाद वे समाधि में चले गए और अपने प्राण त्याग दिए। बेलूर में गंगा के तट पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी तट की दूसरी तरफ उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का अन्तिम संस्कार किया गया था।
स्वामी विवेकानंद की प्रमुख पुस्तकें Swami Vivekananda Ki Books
- संगीत कल्पतरु (1887)
- कर्म योग (1896)
- राज योग (1896)
- वर्तमान भारत (1899)
- ज्ञान योग (1899)
- भक्ति योग (मरणोपरान्त प्रकाशित)
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