खेजड़ली राजस्थान के जोधपुर जिले में स्थित एक गाँव है। इस गाँव का नाम खेजड़ी के पेड़ों की अधिकता के कारण पड़ा है। खेजड़ली आंदोलन का उद्देश्य पेड़ों को काटने से रोकना था। यह आंदोलन 12 सितंबर 1730 को शुरू हुआ था। अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में 363 बिश्नोई महिलाओं, पुरुषों और बच्चों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपना बलिदान दिया।
खेजड़ली आंदोलन जोधपुर के तत्कालीन महाराजा अभय सिंह के समय हुआ था। महाराजा एक महल बनाने के लिए चूना गर्म करने के लिए पेड़ों की लकड़ी चाहता था। खेजड़ली मेला हर साल भादो की दशमी को लगता है। यह मेला 363 लोगों के बलिदान की याद में लगता है।
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खेजड़ली बलिदान दिवस की कहानी
खेजड़ली बलिदान दिवस 12 सितंबर 1730 को राजस्थान के जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव में हुआ था। इस दिन, 363 बिश्नोई लोगों ने खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। यह घटना तब हुई जब मारवाड़ के महाराजा अभय सिंह ने अपने मंत्री गिरधारी सिंह को खेजड़ी के पेड़ों को काटने के लिए भेजा था। पेड़ों को काटने का उद्देश्य नए महल के लिए लकड़ी प्रदान करना था।
अमृता देवी ने अपनी तीन बेटियों के साथ पेड़ों को बचाने के लिए अपने प्राण त्याग दिए। 363 से अधिक अन्य बिश्नोई भी मर गए। खेजड़ली बलिदान दुनिया का एकमात्र अहिंसक वृक्ष बचाओ आंदोलन है। बिश्नोई समुदाय द्वारा खेजड़ी के पेड़ को पवित्र माना जाता है।
खेजड़ली बलिदान दिवस 12 सितंबर 1978 से मनाया जाता है। यह त्योहार खेजड़ली में पेड़ों की रक्षा करने वाले बिश्नोई समुदाय के 363 शहीदों के बलिदान की याद में मनाया जाता है।
क्या हुआ था 12 सितम्बर 1730 को?
खेजड़ली बलिदान दिवस राजस्थान के जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव में 12 सितंबर, 1730 को हुए एक ऐतिहासिक बलिदान की कहानी है। उस समय, मारवाड़ रियासत के महाराजा अभय सिंह अपने किले के निर्माण के लिए चूना पकाने के लिए पेड़ों की कटाई करवा रहे थे। खेजड़ली गांव के पेड़ों की कटाई को लेकर गांववालों ने विरोध किया, लेकिन महाराजा ने उनकी बात नहीं सुनी।
गांववालों ने महाराजा को समझाया कि पेड़ों की कटाई से गांववालों को बहुत नुकसान होगा। पेड़ों से उन्हें छाया, ईंधन, और चारा मिलता है। इसके अलावा, पेड़ गांव की आस्था का प्रतीक भी हैं। महाराजा अभय सिंह ने उनकी बात नहीं मानी और पेड़ों की कटाई का आदेश दिया।
जब महाराजा अभय सिंह के सैनिक खेजड़ली गांव के पेड़ों को काटने आए, तो अमृता देवी ने उनसे अपने प्राणों का बलिदान देकर पेड़ों को बचाने की प्रतिज्ञा की। उन्होंने कहा, “सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण।” यानी, “यदि एक व्यक्ति की जान की कीमत पर भी एक पेड़ बचाया जा सकता है, तो यह मूल्यवान है।”
अमृता देवी की बात सुनकर, गांव के अन्य लोगों ने भी उनके साथ पेड़ों को बचाने के लिए खड़े हो गए। गांववालों ने पेड़ों को बचाने के लिए महाराजा से कई बार गुहार लगाई, लेकिन महाराजा नहीं माने। अंततः, 12 सितंबर, 1730 को गांववालों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।
अमृता देवी बेनीवाल ने अपनी तीन बेटियों आसू , रत्नी और भागू के साथ अपने प्राण त्याग दिए। उन्होंने पेड़ों से लिपटकर अपने प्राणों का बलिदान दिया। इसके अलावा, गांव के 73 अन्य पुरुषों और महिलाओं ने भी पेड़ों के साथ अपने प्राणों का बलिदान दिया।
खेजड़ली बलिदान राजस्थान की वीरता और साहस की कहानी है। इस बलिदान ने राजस्थान के लोगों में राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान की भावना को और मजबूत किया। खेजड़ली बलिदान दिवस को हर साल 12 सितंबर को मनाया जाता है।
इस दिन, खेजड़ली में एक मेला लगता है, जिसमें हजारों लोग भाग लेते हैं। उनके बलिदान की याद में, खेजड़ली गांव में एक स्मारक बनाया गया है, और हर साल 12 सितंबर को खेजड़ली बलिदान दिवस मनाया जाता है।
खेजड़ली बलिदान दिवस की कहानी हमें यह सिखाती है कि हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए, भले ही इसके लिए हमें अपना सब कुछ न्योछावर करना पड़े। हमें प्रकृति का भी सम्मान करना चाहिए और उसे बचाने के लिए प्रयास करना चाहिए। अमृता देवी का बलिदान एक प्रेरणादायक कहानी है।
यह हमें सिखाती है कि हमें अपने मूल्यों के लिए लड़ना चाहिए, भले ही इसके लिए हमें अपना सब कुछ न्योछावर करना पड़े। हमें प्रकृति का भी सम्मान करना चाहिए और उसे बचाने के लिए प्रयास करना चाहिए। अमृता देवी की कहानी को दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण के रूप में जाना जाता है।
कौन होते हैं बिश्नोई?
बिश्नोई एक हिंदू धर्म की एक शाखा है, जो 15वीं शताब्दी में राजस्थान के लुहारी गांव में जाम्भोजी महाराज द्वारा स्थापित की गई थी। बिश्नोई धर्म में प्रकृति के संरक्षण को बहुत महत्व दिया जाता है। बिश्नोई मानते हैं कि सभी प्राणी ईश्वर के बच्चे हैं, और उन्हें समान सम्मान दिया जाना चाहिए।
बिश्नोई धर्म के 29 सिद्धांत हैं, जो श्री गुरु जम्बेश्वर भगवान् द्वारा बताये गए है –
- प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करना।
- 30 दिन जनन – सूतक मानना।
- दिन रजस्वता स्री को गृह कार्यों से मुक्त रखना।
- शील का पालन करना।
- संतोष का धारण करना।
- बाहरी एवं आन्तरिक शुद्धता एवं पवित्रता को बनाये रखना।
- तीन समय संध्या उपासना करना।
- संध्या के समय आरती करना एवं ईश्वर के गुणों के बारे में चिंतन करना।
- निष्ठा एवं प्रेमपूर्वक हवन करना।
- पानी, ईंधन व दूध को छान-बीन कर प्रयोग में लेना।
- वाणी का संयम करना।
- दया एवं क्षमा को धारण करना।
- चोरी नही करनी।
- निंदा नही करनी।
- झूठ नही बोलना।
- वाद – विवाद का त्याग करना।
- अमावश्या के दिन व्रत करना।
- विष्णु का भजन करना।
- जीवों के प्रति दया का भाव रखना।
- हरा वृक्ष नहीं कटवाना।
- काम, क्रोध, मोह एवं लोभ का नाश करना।
- रसोई अपने हाध से बनाना।
- परोपकारी पशुओं की रक्षा करना।
- अमल का सेवन नही करना।
- तम्बाकू का सेवन नही करना।
- भांग का सेवन नही करना।
- शराब का सेवन नही करना।
- बैल को बधिया नहीं करवाना।
- नील का त्याग करना।
ऊदोजी नैण बिश्नोई पंथ के बहुत प्रसिद्ध कवि हुए हैं। उन्होंने इन नियमों को पद्य में प्रस्तुत किया है। ऊदोजी नैण द्वारा पद्य में प्रस्तुत उनतीस नियम इस प्रकार हैं-
तीस दिन सूतक, पांच ऋतुवन्ती न्यारो ।
सेरा करो स्नान, शील, सन्तोष शुची प्यारो ।।
द्विकाल संध्या करो, सांझ आरती गुण गावो ।
होम हित चित प्रीत सूं होय, वास बैकुंठे पावो ।।
पाणी, बांणी, ईन्धणी दूध इतना लीजै छाण ।
क्षमा दया हिरदै धरो, गुरु बतायो जाण ।।
चोरी, निन्दा, झूठ बरजियों, वाद न करणो कोय ।
अमावस्या व्रत राखणो, भजन विष्णु बतायो जोय ।।
जीव दया पालणी, रूंख लीला नहिं घावै ।
अजर जरैं, जीवत मरै, वे वास बैकुण्ठा पावै ।।
करें रसोई हाथ सूं, आन सूं पला न लावै ।
अमर रखावै थाट, बैल बधिया न करावें ।।
अमल, तमाखू, भांग, मद-मांस सूं दूर ही भागे ।
लील न लावै अंग, देखत दूर ही त्याग ।।
‘उणतीस धर्म की आखड़ी, हिरदै धरियो जोय ।
गुरु जाम्भोजी किरपा करी, नाम बिश्नोई होय ।”
बिश्नोई समाज के 29 नियमों को पद्य रूप में प्रदर्शित करती हुई है पंक्तियां समाज के 29 नियमों का अर्थ विशेष रुप से प्रदर्शित करती हैं। बिश्नोई धर्म में पेड़ों को बहुत पवित्र माना जाता है। बिश्नोई मानते हैं कि पेड़ जीवन का आधार हैं, और उन्हें किसी भी कीमत पर बचाना चाहिए। बिश्नोई अपने जीवन का बलिदान देकर भी पेड़ों की रक्षा करने के लिए तैयार रहते हैं।
कौन थे भगवान जांभो जी महाराज?
गुरु जंभेश्वर, जिन्हें जांभोजी के नाम से भी जाना जाता है, एक हिंदू संत थे, जिन्होंने 15वीं शताब्दी में राजस्थान में बिश्नोई धर्म की स्थापना की थी। वे एक महान दार्शनिक और कवि भी थे।
गुरु जंभेश्वर का जन्म 1451 में राजस्थान के लुहारी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम लोहट जी और माता का नाम हंसा देवी था। उन्होंने बचपन से ही वेद और पुराणों का अध्ययन किया।
एक बार, गुरु जंभेश्वर ने देखा कि एक किसान एक पेड़ को काट रहा था। उन्होंने किसान को रोका और उसे बताया कि पेड़ों को काटना पाप है। किसान ने उनकी बात नहीं मानी और पेड़ को काट दिया। इस घटना से गुरु जंभेश्वर को बहुत दुख हुआ। उन्होंने महसूस किया कि लोगों को प्रकृति के महत्व के बारे में शिक्षित करने की जरूरत है।
गुरु जंभेश्वर ने कई वर्षों तक यात्रा की और लोगों को प्रकृति के महत्व के बारे में बताया। उन्होंने 29 सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, जिन्हें बिश्नोई धर्म के सिद्धांत कहा जाता है। ये सिद्धांत सभी प्राणियों के प्रति दया और करुणा का संदेश देते हैं।
गुरु जंभेश्वर ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में समर्थल धोरा नामक एक आश्रम में बिताए। उन्होंने 1536 में समाधि ली। गुरु जंभेश्वर को बिश्नोई धर्म का संस्थापक माना जाता है। उनके सिद्धांत आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं।
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