एनी बेसेंट भारत की आजादी की लड़ाई की प्रमुख नेताओं में से एक थी। एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ ही वे शिक्षिका, लेखिका, लोकसेवी, नेता, सम्पादक, समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ और अंतर्राष्ट्रीय मामलों की जानकार थीं. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और द थियोसॉफिकल सोसायटी की अध्यक्ष रहीं. उन्होंने होमरूल के लिए भारत में बहुत काम किया.
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Short Biography of Annie Besant एनी बेसेंट की संक्षिप्त जीवनी
एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर, 1847 को लंदन के एक आयरिश परिवार में हुआ था. उनका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा इंग्लैण्ड, जर्मनी और फ्रांस में हुई.
प्रारम्भ से ही इनमें विलक्षण प्रतिभा और अद्भुत चिंतन शक्ति थी. उन्होंने ईसाई धर्म की स्थापित मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया. फ्री थिंकिंग की ओर उनका रुझान था. वे सत्य की अन्वेषक थीं. उन्होंने थियोसॉफी धर्म को अपनाया था.
द थियोसॉफिकल सोसायटी से जुड़ने के बाद वे भारत आईं और यहीं की होकर रह गईं. भारत में उन्होंने मद्रास के पास अडयार को अपनी कर्म भूमि बनाया और यहीं से थियोसॉफी का दुनिया में प्रसार किया. थियोसॉफिकल सोसायटी की अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने दुनिया भर के अनेक देशों की यात्राएं कीं.
एनी बेसेंट ब्रिटिश शासन से भारत और आयरलैंड की मुक्ति की समर्थक थीं. उन्होंने होमरूल लीग की स्थापना की. वे 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष भी बनीं. वाराणसी में उन्होंने सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज एवं स्कूल की स्थापना की.
उनके भाषण सुन्दर विचारों और गहन भावों से ओत-प्रोत होते थे. उनकी जीवन-पद्धति आध्यात्मिक, सद्भावनापूर्ण और सद प्रेरणाओं से युक्त थी. वे शुद्ध शाकाहारी और सात्त्विक मनोवृत्ति की थीं. वे छोटे-से-छोटे जीव से भी जुड़ाव अनुभव करती थी और उनके प्रति जरा भी उपेक्षा अथवा निर्दयता उन्हें सहन नहीं थी. उन्होंने पशु-संरक्षण के लिए भी आन्दोलन किए थे और मानवता को प्रेम और परोपकार का पाठ पढ़ाया था.
भारत के इतिहास में कोई दूसरा ऐसा उदाहरण ही मिले जब उनकी कोटि की अन्य किसी विचारशील और आदर्श महिला ने सामाजिक घटनाओं के निर्णय में इतना जबर्दस्त भाग लिया हो. उस समय युवाओं में ही नहीं महिलाओं और पिछड़ों में भी जो पढ़ने की अभिरूचि पैदा हुई वह सब एनी बेसेंट की ही तपस्या, मनोबल, सेवा और साधना का फल है.
Early Life of Annie Besant एनी बेसेंट का आरम्भिक जीवन
एनी बेसेंट शुरुआत में एक पक्की कैथोलिक थीं. उन्होंने 20 वर्ष की उम्र में एक अंग्रेज पादरी रेव. फ्रैंड बेसेंट से शादी की. दोनों के एक बेटा आर्थर डिग्बी और एक बेटी मेबेल हुई.
एनी बेसेंट अपनी अंतरात्मा की आवाज और ईश्वरीय प्रेरणा से कार्य करने में विश्वास रखती थीं. विवाह हो जाने पर वे अपने पति के दुर्व्यवहार से तंग रहती थीं. एक बार तो वह इतनी अधिक दुखी हुईं कि जहर पीने तक को तैयार हो गईं.
उसी समय उनके भीतर से उनकी अंतरात्मा ने उन्हें कचोटा, ‘‘ तू कष्ट और मुसीबतों से डर कर आत्म हत्या करना चाहती है? आत्म-समर्पण का पाठ सीख और सत्य की खोज कर.’’ यह अनुभूति होते ही एनी बेसेंट ने तुरन्त जहर की बोतल खिड़की से बाहर फेंक दी.
उनकी तीक्ष्ण बुद्धि और आध्यात्मिक प्रकृति उन्हें धर्म पर विश्वास करने के साथ-साथ उसे समझने के लिए भी प्रेरित करती थी. ईसाई रीति-रिवाजों और परम्परा में उनकी तार्किक बुद्धि अधिक समय तक नहीं टिकी. 1872 में वे चर्च छोड़कर एक मुक्त विचारक बन गईं. सत्य के अन्वेषण के लिए उन्हें अपने पति और बेटे को भी छोड़ना पड़ा.
एनी बेसेंट का इंग्लैंड में सामाजिक जीवन
1874 में वे इंग्लैंड के चार्ल्स ब्रैडलाफ के मुक्त विचार आंदोलनों में सक्रिय हो गई और नेशनल सेक्युलर सोसायटी में शामिल हो गईं. उनके साथ एनी बेसेंट ने नेशनल रिफॉर्मर का संपादन भी किया.
इसी दौरान उनके पति ने कोर्ट के माध्यम से उनकी बेटी की कस्टडी ले ली. बेटी से विछोह से उन्हें बहुत दुख पहुंचा. हालांकि, जब बच्चे बड़े हुए तो वे अपनी मां के बहुत बड़े प्रशंसक बने.
1879 में उन्होंने लंदन यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त की. वे आगे विज्ञान विषय की पढ़ाई करना चाहती थीं लेकिन उस समय व्याप्त लिंग भेद के कारण वे अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सकीं.
एनी बेसेंट ने श्रमिक और समाजवादी आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया. वे फेबियन सोसायटी और सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन की सदस्य भी बनीं.
Annie Besant’s meeting with Madam Blavatsky मैडम ब्लैवत्सकी से मुलाकात
फ्री थॉट मूवमेंट की नकारात्मक शैली से असंतुष्ट होकर एनी बेसेंट ने अपने आप को आध्यात्मिक अन्वेषण में लगा दिया. इस बीच द रिव्यू ऑफ रिव्यूज के संपादक डब्ल्यू. टी. स्टेड ने मैडम ब्लैवत्सकी की पुस्तक द सीक्रेट डॉक्ट्राइन पढ़ने के लिए दी. जैसे ही उन्होंने ये पुस्तक पूरी पढ़ी, उनमें अज्ञात शक्ति जागृत हुई. वे मैडम एच.पी. ब्लैवत्सकी से मिलने के लिए आतुर हो उठीं.
मैडम ब्लैवत्सकी से मिलने के बाद एनी बेसेंट को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो वे संसार की सेवा के लिए ही आई हैं. उनमें यह भावना जाग उठी कि विश्व ही मेरा देश है और परोपकार ही मेरा धर्म है. उन्होंने धर्म निरपेक्षता और समाजवाद के विचारों को छोड़कर मानव सेवा और परोपकार में समय देने का फैसला किया.
Annie Besant and the Theosophical Society थियोसॉफी में एनी बेसेंट का प्रवेश
एनी बेसेंट 21 मई 1889 को द थियोसॉफिकल सोसायटी से जुड़ गई और मैडम ब्लैवत्सकी की पक्की शिष्य बन गईं. इसके बाद उन्होंने थियोसॉफी में अपना पूरा समय दिया और थियोसॉफी की सबसे प्रखर पैरोकार बनकर उभरीं.
1893 में ऐनी बेसेंट ने शिकागो में विश्व धर्म संसद में द थियोसॉफिकल सोसायटी का प्रतिनिधित्व किया. वे 1893 में ही थियोसॉफिकल सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष एच.एस. ओल्कॉट के साथ भारत आईं. यहां उन्होंने अपने प्रभावी भाषणों से रुढ़िवादी ब्राह्मणों तक को थियोसॉफी से जुड़ने के लिए प्रेरित किया.
इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का दो-तिहाई भाग भारत भूमि की सेवा में लगा दिया. उन्होंने अनेक सुधार-आंदोलन में भाग लिया और स्त्री शिक्षा पर जोर दिया. वे अशिक्षा, अन्ध विश्वास और कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहती थीं.
Contribution of Annie Besant in Education एनी बेसेंट का शिक्षा में योगदान
भारत में आने के पांच वर्ष बाद एनी बेसेंट ने बनारस में ‘सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना की विशाल योजना बनाई और उसे अमल में लाने के लिए ब्रिटेन और अमेरिका से डॉक्टर ए. रिचर्डसन और डॉक्टर जी. एस. अरूण्डेल जैसे विद्वानों को आमन्त्रित किया. भारत में डॉ. भगवान दास, उनके भाई गोविन्द दास, ज्ञानेन्द्र नाथ चक्रवर्ती, उपेन्द्रनाथ बसु, आई.एन. गुर्टू और पी.के. तेलंग जैसी विभूतियां उनके साथ जड़ गईं.
सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज के माध्यम से महामना पंडित मदनमोहन मालवीय को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए एनी बेसेंट ने ही प्रोत्साहित किया. भारतीय शिक्षा व्यवस्था में उनके योगदान को देखते हुए एनी बेसेंट को 1921 में मानद डॉक्टर की उपाधि प्रदान की गई.
थियोसॉफिकल सोसाइटी की अध्यक्ष एनी बेसेंट
कर्नल ओल्कॉट की मृत्यु के बाद वर्ष 1907 में वे थियोसॉफिकल सोसाइटी की अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष चुनी गईं और 1933 में उनकी मृत्यु होने तक इस पद को सुशोभित करती रहीं. वे अत्यन्त उत्साह से थियोसॉफी द्वारा सत्य का प्रचार करती थीं. यदि उनका कोई विरोध भी करता था, तो अत्यन्त विनम्रता और प्रेम से वे उसे समझातीं और उसकी शंकाओं का समाधान करती थीं.
एनी बेसेंट ने थियोसॉफी के प्रचार के लिए पूरे यूरोप का भ्रमण किया. कई बार वे अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड भी गईं.
भारतीय राजनीति में एनी बेसेंट का योगदान Annie Besant’s contribution in Indian Politics
राजनीतिक क्षेत्र में भी एनी बेसेंट ने बीस वर्ष तक भाग लिया. 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में भारत परतन्त्रता और विदेशी शासन में बुरी तरह जकड़ा था. वर्ष 1913 में एनी बेसेंट राजनीतिक क्षेत्र मे उतर पड़ीं. इन्होंने ‘कॉमनवील’ नाम का एक साप्ताहिक पत्र निकाला और कुछ महीने बाद प्रसिद्ध दैनिक पत्र ‘मद्रास स्टैण्डर्ड’ भी ले लिया.
इन्होंने उसी वर्ष इसका नाम ‘न्यू इण्डिया’ में बदल दिया और कई वर्ष तक बड़ी योग्यता से वे इस का सम्पादन करती रहीं. वे ‘इण्डियन नेशनल कांग्रेस’ मे सम्मिलित हुई और उसकी अध्यक्ष बनने का सम्मान प्राप्त किया. सन् 1907 में भारत में ‘इण्डियन नेशनल कांग्रेस’ दो पार्टियों में विभक्त हो गई थी;
उस समय दो प्रमुख नेता थे, बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले. डॉक्टर बेसेंट ने इन दोनों पार्टियों में एकता कराई और ‘ऑल इण्डिया होम रूल लीग’ की स्थापना की. सन् 1921 में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के लिए दूसरा आन्दोलन किया, जो कि ‘नेशनल कन्वेन्शन’ कहलाया.
इसके परिणामस्वरूप सन् 1925 में ‘कॉमनवेल्थ ऑफ इण्डिया बिल’ का प्रस्ताव हुआ और ब्रिटिश संसद में रखा गया. इस बिल का उद्देश्य था सेना और विदेशी मामलों को छोड़ कर भारत को समस्त अधिकार सौंपना. पार्लियामेंट में यह बिल विचारार्थ रखा गया और ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में पास भी हो गया, किन्तु कोई सफल परिणाम नहीं निकला.
भारत में स्काउट गाइड आंदोलन Scout and Guide Movement in India
जब लॉर्ड बैडन पॉवेल ने भारत में स्काउट संस्था शुरू करने से इनकार कर दिया तो एनी बेसेंट ने 1918 में स्वयं के स्तर पर इंडियन स्काउट मूवमेंट शुरू किया. बैडल पॉवेल जब 1921 में भारत आए और उन्होंने देखा कि एनी बेसेंट कितनी सफलता से भारत में स्काउट मूवमेंट चला रही हैं तो उन्होंने भारतीय स्काउट आंदोलन को वैश्विक संस्था से जोड़ने की अनुमति प्रदान कर दी.
लार्ड पावेल द्वारा ‘ऑल इण्डिया बॉय स्काउट एसोसिएशन’ की वे ऑनरेरी कमिश्नर नियुक्त की गईं और सन् 1932 में इस संस्था की सबसे सम्मानित उपाधि ‘सिल्वर वुल्फ’ उन्हें प्रदान की गई.
एनी बेसेंट द्वारा लिखित पुस्तकें Annie Besant Books and Periodicals
एनी बेसेंट ने सब मिलाकर 300 पुस्तकें लिखी और अनेक टिप्पणियां और लेख भी लिखे. उनकी लिखी पुस्तकों में जीवन एवं ब्रह्मांड के रहस्यों के बारे में अलग दृष्टि दिखाई देती है. उनकी ऐसी ही एक पुस्तक ए स्टडी इन कॉन्शसनेस कई विश्वविद्यालयों में पाठ्य पुस्तक के रूप में फढ़ाई जा रही है.
उन्होंने ईसाई धर्म के वास्तविक ज्ञान काे सामने लाने के लिए एसोटेरिक क्रिश्चियैनिटी पुस्तक लिखी. उन्होंने भगवद्गीता का अंग्रेजी अनुवाद भी किया जो 1905 में प्रकाशित हुआ.
इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्रों का सम्पादन किया, जिनके अग्रलेख प्रायः वे ही लिखती थीं. उन्होंने ‘महिला प्रिंटिंग प्रेस’ का संचालन किया और एक बहुत बड़ा सामाजिक पत्र ‘डेली हेराल्ड’ निकाला.
उन्होंने भारतीय सम्पादकों के सम्मुख एक आदर्श उपस्थित किया और शिक्षित वर्ग को समाचार-पत्रों की अद्भुत कार्य-क्षमता और उपयोगिता का ज्ञान कराया.
जे. कृष्णमूर्ति और एनी बेसेंट
थियोसॉफिकल सोसाइटी के काम के दौरान एनी बेसेंट को दो विलक्षण भाइयों के बारे में पता चला. उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर एनी बेसेंट ने दोनों बालकों में से बड़े भाई जिद्दू कृष्णमूर्ति के बारे में भविष्यवाणी की कि यह आगे चलकर विश्व गुरु बनेगा.
1910 में उन्होंने जे. कृष्णमूर्ति के पालन-पोषण की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उन्हें अपना छोटा भाई समझकर पाला. उन्होंने जे. कृष्णमूर्ति को लंदन पढ़ने के लिए भेजा. करीब 10 वर्ष तक विदेश में पढ़कर लौटे जिद्दू कृष्णमूर्ति को उन्होंने कुछ वर्ष बाद विश्वगुरु घोषित कर दिया.
जे. कृष्णमूर्ति प्यार से उन्हें अम्मा कहा करते थे. स्वयं जे. कृष्णमूर्ति ने आगे चलकर कहा कि अम्मा ने मुझे कभी यह नहीं कहा कि तुम क्या करो. उन्होंने मुझे लोगों से मिलने, उन्हें समझने, समझाने का अवसर उपलब्ध कराया.
एनी बेसेंट का निधन Death of Annie Besant
20 सितम्बर 1933 को डॉ. एनी बेसेंट ने अड्यार स्थित थियोसॉफिकल सोसायटी के मुख्यालय में अपना शरीर त्याग दिया. एनी बेसेंट ने कहा था कि मृत्यु के बाद मैं अपनी समाधि पर यही एक वाक्य चाहती हूं – उसने सत्य की खोज में अपने प्राणों की बाजी लगा दी.
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