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चंद्रशेखर आजाद की जीवनी
चंद्रशेखर आजाद भारत की आजादी की लड़ाई के युवा प्रतीक हैं जिन्होंने अपने प्राण स्वतंत्रता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए गंवा दिए थे। इस युवा क्रांतिकारी ने देश की आजादी के लिए हंसते—हंसते प्राणों का बलिदान कर दिया।
चंद्रशेखर अपने नाम के अनुकूल ही आजाद ही जिए और आजाद ही मरे। एक ऐसी शक्ति जिसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, वह ब्रिटिश सरकार भी उन्हें बेड़ियों में जकड़ने में असफल ही रही। अपनी आखिरी सांस तक आजाद ने कभी अंग्रेज सरकार को अपनी गिरफ्त में नहीं लेने दिया।
चंद्रशेखर आजाद का आरंभिक जीवन
चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्यप्रदेश के भाबरा गांव में 23 जुलाई, 1906 को हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी था। मूल रूप से उनका परिवार उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव का रहने वाला था।
अकाल की वजह से उनके परिवार को मध्यप्रदेश आना पड़ा। भाबरा भील बहुल इलाका था और इस वजह से चंद्रशेखर को बचपन से ही तीर कमान और हथियारों से लगाव हो गया। उनके पिता उन्हें विद्या अध्ययन करवाना चाहते थे लेकिन उनका मन पहलवानी और खेल में अधिक रहा।
कैसे मिला चंद्रशेखर का अपना उपनाम आजाद
चंद्रशेखर आजाद को अपना उपनाम आजाद मिलने की कहानी बहुत दिलचस्प है। हालांकि उन्हें पण्डित जी, बलराज और क्विक सिल्वर जैसे कई उपनाम मिले लेकिन आजाद उपनाम से उनकी पहचान कायम हुई। उन्हें अपना यह नाम इतना पसंद था कि वे अपने नाम चंद्रशेखर तिवारी की जगह चंद्रशेखर आजाद लिखना पसंद करते थे।
यह उपनाम मिलने के पीछे भी चंद्रेशेखर आजाद की कहानी है। जवाहर लाल नेहरू ने भी इस कथा का उल्लेख किया था। यह उस समय की बात है जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरा देश असहयोग आंदोलन में भाग ले रहा था।
अंग्रेज सरकार इस आंदोलन से बहुत घबराई हुई थी। बच्चे और बूढ़े सब सरकार विरोधी धरनों का हिस्सा बने हुए थे। आजाद भी ऐसे ही एक धरने में शामिल हुए और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया।
मजिस्ट्रेट खरेघाट अपने कड़क मिजाज के लिए जाने जाते थे और अक्सर उनके द्वारा साधारण अपराध की कठोर सजा सुना दी जाती थी। सब उनसे डरते थे। मजिस्ट्रेट ने जब चंद्रशेखर से पूछा कि क्या नाम है तुम्हारा? तब बालक चंद्रशेखर ने जवाब दिया
मेरा नाम आजाद है।
मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम्हारे पिता का नाम क्या है तो आजाद ने उत्तर दिया
मेरे पिता का नाम स्वाधीनता है।
मजिस्ट्रेट को अब समझ में आ गया कि चंद्रशेखर आजाद कहना क्या कहना चाहते हैं लेकिन फिर भी उन्होंने अगला सवाल पूछा तुम्हारी माता का क्या नाम है?
चंद्रशेखर ने नीडर होकर उत्तर दिया भारत मेरी मां है और जेल मेरा घर है।
मजिस्ट्रेट ने आजाद को 15 बेंत की सजा सुनाई। हर बेंत पर उन्होंने भारत मां की जय के नारे लगाए। बेंत खाने के एवज में उन्हें 3 पैसे मिले तो वह उन पैसों को जेलर के मूंह पर मार कर आ गए। उस दिन से उनके साथी उन्हें आजाद के नाम से बुलाने लगे।
कैसे किया भारत की आजादी की लड़ाई में प्रवेश?
चंद्रशेखर आजाद अभी युवा ही थे और वे देश के लिए कुछ करना भी चाहते थे लेकिन उन्हें सही रास्ता समझ में नहीं आता था। इसी पशोपेश में भारत में एक ऐसी घटना घटी की उनका जीवन ही बदल गया और उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिए। यह घटना थी जलियांवाला बाग का गोलीकांड।
जलियांवाला बाग की घटना से उन्हें यह समझ में आ गया कि बन्दूक की भाषा बोलने वाले को सिर्फ बन्दूक की गोली से ही समझाया जा सकता है। महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धान्त उनको विशेष प्रभावित नहीं कर पाया था हालांकि गांधी जी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में उन्होंने भाग लिया और लाठियां भी खाई लेकिन बन्दूक के सहारे क्रांति के विचार से वे ज्यादा प्रभावित रहे।
इसी बीच चौरा—चौरी कांड की वजह से महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया और चंद्रशेखर आजाद की अहिंसात्मक आंदोलन में रही—सही आस्था भी समाप्त हो गई। इसके बाद चंद्रशेखर आजाद बनारस आ गए और यहीं पर रहकर क्रांति की भूमिका तैयार करने लगे। उन दिनो बंगाल क्रांतिकारियों का गढ़ हुआ करता था। बनारस में वे मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आए और भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन से उन्हें जुड़ने का अवसर मिला।
क्रांतिकारी संगठन में आजाद का प्रवेश
क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए उन्हें जल्दी ही समझ में आ गया कि बिना संगठन के यह काम करना संभव नहीं है और इसे पूरा करने के लिए वे हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ के सदस्य बन गए।
पहलेपहल इस दल ने कुछ अमीर लोगों को लूटकर उसका धन गरीब लोगों में बांटने का काम किया लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि इस तरह वे आमजनता के हृदय में कभी जगह नहीं बना पाएंगे।
ऐसे में उनका विचार बदला और वे पूरी तरह उन घटनाओं को अंजाम देने लगे, जिससे सरकारी खजाने को या तो लूटा जा सके या फिर सरकारी व्यवस्था को कमजोर बनाया जा सके। ऐसा करके उन्होंने दुनिया की सबसे शक्तिशाली सरकार के साथ युद्धघोष कर दिया।
शुरूआत में छोटी—छोटी घटनाओं को अंजाम दिया गया लेकिन जल्दी ही वे समझ गया कि कुछ बड़ा करके ही वे जल्दी इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं और एक बड़ी योजना पर काम किया जाने लगा जो भारतीय इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गई।
चंद्रशेखर आजाद और काकोरी कांड
काकोरी कांड में 10 क्रांतिकारियों ने हिस्सा लिया। इसमें चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशनसिंह प्रमुख थे। दल के सदस्यों ने लूटकर अंग्रेजों के सामने चुनौती पेश की। सरकार ने इसे अंग्रेजी राज पर हमले की तरह लिया और सारी पुलिसफोर्स को इन क्रांतिकारियों के पीछे लगा दिया गया।
मुखबिरी के कारण दल के सदस्य गिरफ्तार होने लगे लेकिन आजाद तक पुलिस कभी पहुंच नहीं पाई। पुलिस को जबतक खबर मिलती आजाद वहां से निकल चुके होते थे। एक समय तो ऐसा आ गया था कि पुलिस ने यह मान लिया था कि वह आजाद को कभी गिरफ्तार नहीं कर सकेगी।
हालांकि उनके अलावा रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशनसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया था। अंग्रेज सरकार ने उनपर मुकदमा चलाया और अदालत ने इन सभी को फांसी की सजा सुनाई। इस घटना के बाद हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ बिखर गया लेकिन आजाद ने हार नहीं मानी। वे छुपते—छुपाते दिल्ली पहुंच गए।
दो महान क्रांतिकारियों की मुलाकात
दिल्ली पहुंचने के बाद चंद्रशेखर आजाद ने यहां के क्रांतिकारी युवाओं से संपर्क साधा और इसी दौरान वे महान क्रांतिकारी भगतसिंह के सम्पर्क में आए। एक नया दल बनने लगा और एक दिन सभी युवाओं ने मिलकर फिरोजशाह कोटला में एक गुप्त मीटिंग का आयोजन किया। यहां एक नये दल की नींव रखी गई जिसको नाम दिया गया— हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन।
चंद्रशेखर आजाद को इस दल का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया गया। इस संगठन ने अपना नारा बनाया— हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत। इस दल ने वे कारनामें किए भारत की आजादी की लड़ाई के सबसे गौरवमयी क्षणों के तौर पर उन्हें आधुनिक भारतीय इतिहास में दर्ज किया गया।
साइमन कमीशन और लाला लाजपत राय की हत्या
1928 में साइमन कमीशन भारत आया। लाला लाजपत राय की अगुआई में एक दल साइमन कमीशन का विरोध करने पहुंचा तो पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया। इस लाठी चार्ज में लालाजी को बहुत चोट आई और अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई।
उनकी मौत से पूरे देश में गुस्से की लहर दौड़ गई। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने लालाजी की मौत का बदला लेने की ठानी और अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या का प्रण लिया।
यह काम भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद ने अपने हाथों मे लिया लेकिन गफलत की वजह से उनके हाथों सांडर्स की जगह दूसरे पुलिस अधिकारी स्कॉट की जान चली गई। इसके बाद दोनों पुलिस से बचने के लिए छुपे रहे।
मामले के शांत हो जाने के बाद एक काला कानून रोलेट एक्ट आया। इस कानून के विरोध के लिए भगत सिंह ने आइरिश क्रांति से प्रभावित होकर एसेम्बली में बम फोड़ने की योजना बनाई।
इस योजना को अंजाम तक पहुंचाते हुए भगतसिंह ने अपनी गिरफ्तारी दी। आजाद एक बार फिर से अकेले हो गए। आजाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।
अल्फ्रेड पार्क में आजाद का अंतिम संघर्ष
स्कॉट की हत्या के जुर्म में अंग्रेज सरकार ने राजगुरू, भगतसिंह और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई। आजाद ने उनकी फांसी को उम्रकैद में बदलवाने के लिए कई बड़े लोगों से सम्पर्क किया और इसी कोशिश में वे इलाहाबाद पहुंचे। किसी मुखबिर ने उनके इलाहाबाद में होने की सूचना पुलिस को दे दी।
इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद को घेर लिया और उन्हें आत्मसपर्मण करने को कहा। आजाद ने पुलिस को स्पष्ट कर दिया कि वे आजाद ही पैदा हुए हैं और आजाद ही मरेंगे। पुलिस के साथ लोहा लेते हुए आजाद ने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
27 फरवरी, 1931 को सिर्फ 24 साल की उम्र में उन्होंने शहीद होकर देश का गौरव बढ़ाया। उनका अंतिम संस्कार अंग्रेज सरकार ने बिना किसी पूर्व सूचना के कर दिया। लोगों ने उनकी अंतिम विदाई के तौर पर उस पेड़ को घेर लिया जिसके नीचे इस वीर ने अपन प्राण त्यागे थे।
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