भगवान महावीर की जीवनी-Bhagwan Mahavira Biography

महावीर स्वामी की जीवनी –  Mahavir Swami Biography

भगवान महावीर के सिद्धान्त उनके जन्म के ढाई हजार साल भी उनके लाखों अनुयायियों के साथ ही पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है. जैन धर्म के प्रवर्तक और पंचशील सिद्धान्त के प्रणेता जैन धर्म के चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख पैरोकारों में से एक हैं. जैन ग्रंथों के अनुसार, 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के 298 वर्ष बाद महावीर स्वामी का जन्म‍ हुआ.

भगवान महावीर का आरंभिक जीवन

भगवान महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित है लेकिन उनके भारत में उनके जन्म को लेकर वे एक मत है. वे भगवान महावीर को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं.

भारत वर्ष को भगवान महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया. उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया. बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है जो जैन धर्म के अनुयायी बने. भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया.

यह ऐसा समय था जब पशु‍बलि, हिंसा और जातिभेद के साथ ही धार्मिक अंधविश्वास का बोलबाला था. 599 ईसा पूर्व आज से करीब ढाई हजार साल पहले वर्तमान बिहा में स्थित वैशाली के निकट कुण्डलग्राम में एक क्षत्रिय परिवार में महावीर का जन्म हुआ. भगवान महावीर की माता का नाम त्रिशला व पिता का नाम सिद्धार्थ था.

माता-पिता ने इनका नाम वर्धमान रखा. बाल्यकाल से ही महावीर ज्ञानी, धैर्यवान और साहसी थे. अपनी बुद्धिमता की वजह से वर्धमान महावीर ने जल्दी ही अपनी शिक्षा पूरी कर ली. माता—पिता ने इनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ कर दिया. विवाह के बाद राजकुमार वर्धमान और यशोदा को एक पुत्री की प्राप्ति हुई.

राजकुमार वर्धमान से कैसे बने भगवान महावीर?

बचपन से ही राजकुमार वर्धमान का वैराग्य से लगाव था. धन, परिवार और राजपाठ से उन्हें मोह नहीं था. इसी बीच उनके पिता की मृत्यु हो गई. पिता की मृत्यु के बाद जीवन के प्रति उनकी रही-सही आसक्ती भी समाप्त हो गई.

इस घटना के बाद राजा बनकर राज्य पर शासन करने के विचार को छोड़ उन्होंने तप और त्याग का मार्ग अपना लिया. सन्यास लेते समय उनकी आयु सिर्फ 30 साल की थी. इतनी कम आयु में सन्यास लेकर उन्होंने ‘केशलोच’ के साथ वन में ध्यान साधना का आरंभ कर दिया. वहां उन्होंने 12 वर्ष तक कठोर तप किया.

इस कठिन साधना के बाद जम्बक वन में ऋजुपालिका नदी के किनारे स्थित साल्व वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ती हुई. इस ज्ञान को कैवल्य कहा गया और इसी वजह से भगवान महाविर को ‘केवलिन’ की उपाधि प्रदान की गई।

उनके विचारों और उपदेशों से आमजन ही नहीं ​विशिष्टजन भी प्रभावित होने लगे। उनकी कीर्ति चारों दिशाओं में फैलने लगी। उनके अनुयायियों और शिष्यों की संख्या में बढ़ोतरी होने लगी. कई देशों के राजा उनके शिष्य बनने के लिए राजपाठ छोड़ने को आतुर हो गए.

उस समय के भारत वर्ष के सम्राट बिम्बिसार ने भी भगवान महावीर से दीक्षा प्राप्त की. उन्होंने जैन धर्म के जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में अगले 30 सालों तक धर्मपताका फहराई.

भगवान महावीर की जैन धर्म की शिक्षा (Mahavir Swami Jain dharm)

भगवान महावीर को अपने गुणों की वजह से श्रद्धालुओं और शिष्यों ने कई उपमाओं और नामों से​ विभूषित किया. उन्हें वीर, अतिवीर और सन्मती कहा जाता है, यह सब महावीर स्वामी के ही विविध नाम हैं.

उनके प्रयासों से ही जैन धर्म ने एक विशाल धर्म का रूप धारण किया. उन्होंने जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर जोर दिया। सबको एक समान नजर में देखने वाले भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे. वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे.

भगवान महावीर के जिओ और जीने दो के सिद्धान्त की वकालत की. उनके इस धर्म संदेश को को जन—जन तक पहुंचाने के लिए जैन धर्म के अनुयायी हर वर्ष की कार्तिक पूर्णिमा को त्योहार की तरह मनाते हैं. इस अवसर पर वह दीपक प्रज्वलित करते हैं. जैन धर्म के लिए उन्होंने पांच व्रत अहिंसा,अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अनिवार्य बताया है.

जैन धर्म को कैसे मिला अपना नाम?

भगवान महावीर ने अपने इंद्रियों को जीत लिया था इसी वजह से उन्हें जितेन्द्रिय या जिन कहा जाता है. इसी जिन से जैन शब्द का उद्भव हुआ. जो धर्म जितेन्द्रिय होने का उपदेश दे उसे जैन धर्म कहा गया. जैन धर्म साहित्य में यह भी उल्लेख आता है कि भगवान महावीर के 11 गणधर थे. इनमें से प्रथम गणधर का नाम गौतम स्वामी था.

जैन धर्म अहिंसा और जितेन्द्रिय होने पर सबसे ज्यादा जोर देता है. प्राणीमात्र की रक्षा करना और इन्द्रियों को नियंत्रित करने की साधना का इस धर्म में कड़ाई से पालन किया जाता है. जैन गुरूओं की प्रतिष्ठा सभी समाजों में इसी वजह से बहुत अधिक होती है क्योंकि वे बहुत कठोर तप करते हैं और उनका पूरा जीवन ही त्याग और साधना का उदाहरण होता है. इसकी प्रेरणा भगवान महावीर के जीवन से ही मिलती है.

भगवान महावीर का मोक्षगमन

भगवान महावीन ने 527 ईसा पूर्व कार्तिक कृष्णा द्वितीया तिथि को इस संसार का त्याग किया. देह त्याग के समय उनकी आयू 72 वर्ष थी. बिहार के पावापूरी जहां उन्होंने इस संसार का त्याग किया, वह स्थान जैन धर्मावलम्बियों द्वारा बहुत पवित्र माना जाता है और तीर्थ यात्रा के लिए वे इस स्थान पर जाते हैं. भगवान महावीर की मृत्यु के करीब 200 साल बाद जैन धर्म दो सम्प्रदायों श्वेताम्बर और दिगम्बर में बंट गया। दिगम्बर सम्प्रदाय के जैन संत वस्त्रों का त्याग कर देते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं.

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