Kabir ke Dohe on Guru- कबीर के दोहे

Kabir ke Dohe on Guru गुरू महिमा पर कबीर दोहे

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान.
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान.
जप माला छापा तिलक, सरै ना ऐको काम.
मन कंचे नाचे बृथा, संचे रचे राम.

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गुरू बिन ज्ञान न उपजई, गुरू बिन मलई न मोश .
गुरू बिन लाखाई ना सत्य को, गुरू बिन मिटे ना दोष.
दाढ़ी मूछ मूराय के, हुआ घोटम घोट
मन को क्यों नहीं मूरिये, जामै भरीया खोट.
कहां से आया कहां जाओगे, खबर करो अपने तन की.
सतगुरु मिले तो भेद बतावें, खुल जाए अंतर घट की.
साधु शब्द समुद्र है, जामे रत्न भराय.
मंद भाग मुट्ठी भरे, कंकर हाथ लगाये.
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव.
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव.
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय.
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय.
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि.
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि.
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार.
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार.
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार.
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार.
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरू सों होय.
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय.
मुंड मुराये हरि मिले, सब कोई लेहि मुराये
बार बार के मुंडने, भेर ना बैकुंठ जाये.

जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरू सों होय.
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय.
जेता मीठा बोलना तेता साधु ना जान.
पहिले थाह देखि करि, औंदेय देसी आन.
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और.
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर.
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय.
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय.
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं.
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि.
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय.
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय. 

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