Table of Contents
दुर्गा पूजा का महत्व
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।– दुर्गासप्तशती
Significance of Devi Pujaदेवी की पूजा क्यों?
शिवजी बोले-हे मुनिवर ! सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर से परे जो महाप्राण आदिशक्ति हैं, वह स्वयं पारब्रह्म स्वरूप हैं. वह केवल अपनी इच्छा मात्र से ही सृष्टि की रचना, पालन एवं संहार करने में समर्थ हैं. वास्तव में, यद्यपि वह निर्गुण स्वरूप है, तथापि समय-समय पर धर्म की रक्षा एवं दुष्टों के नाश हेतु उन्होंने पार्वती, दुर्गा, काली, चण्डी, वैष्णो एवं सरस्वती के रूप में अवतार धारण किये हैं.
श्री शंकर जी आगे कहते हैं कि हे नारद ! अधिकतर, यह भ्रम होता है कि यह देवी कौन है? और क्या वह पारब्रह्म से भी बढ़कर है ? श्रीमद्देवीभागवत में ब्रह्मा जी के एक प्रश्न के उत्तर में स्वयं देवी ने ऐसा कहा है ‘‘एक ही वास्तविकता है, और वह है सत्य! मैं ही सत्य हूं. मैं न तो नर हूं, न ही नारी और न ही कोई ऐसा प्राणी हूं जो नर या मादा हो. अथवा नर-मादा भी न हूं, ऐसा भी कुछ नहीं हैं. परन्तु कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जिसमें मैं विद्यमान नहीं ! मैं प्रत्येक भौतिक वस्तु तथा शरीर में शक्ति के रूप में रहती हूं.’’
भगवान विष्णु ने भी बखान किया है देवी महत्व
श्री देवी पुराण में ही एक स्थान पर विष्णु भगवान यह स्वीकार करते हैं कि वह मुक्त नहीं हैं और केवल महादेवी की आज्ञा का पालन करते हैं. यदि ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं, और शिवजी संहार करते हैं, तो वह केवल यन्त्र की भांति कार्यरत हैं. उस यन्त्र की संचालनकर्ता महादेवी ही हैं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी शक्ति या ऊर्जा के बिना प्राणी निर्जीव है.
अतः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देवी का प्रतिबिम्ब अथवा छाया-मात्र है. समस्त भौतिक पदार्थो एवं जीवों में शक्ति (देवी) द्वारा ही चेतना एवं प्राण का संचार होता है. इव नश्वर संसार में चेतना के रूप में प्रकट होने से देवी को ‘चितस्वरूपनी’ माना जाता है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित अन्य सभी देवता कालान्तर में नाशवान हो सकते हैं, परन्तु देवी-शक्ति सदैव अजन्मा और अविनाशी हैं, वही आदि-शक्ति हैं और अनन्त हैं.
श्रीमद्भागवत पुराण में भी महादेवी की महिमा
माता का विराट् रूप कैसा है ?
आंखे मूंदकर मनन कीजिए कि हजारों कमल-पुष्प एकदम खिल उठे ! सोचिए कि एक हजार सूर्य एक ही आकाश-मण्डल में एक साथ उदय हो गए !! ऐसा है उसका रूप, ऐसा है उसका तेज. सूर्य और चन्द्र उसके दोनों नेत्र हैं. नक्षत्र आभूषण हैं, हरी-भरी धरा का सिंहासन और नीला आकाश उस पर छत्रछाया है. अस्ताचल को जाते हुए रक्तावरण सूर्य में भी वही दीप्तिमान है. हिमपात के कारण सफेद चादर से ढ़के हुए पर्वतों में विराजमान हैं.
श्वेत-वस्त्र धारण किए सरस्वती के रूप में शोभायमान है. वह ही स्त्रियों की लज्जा में, योद्धाओं के आक्रोश में और विकराल काला-ज्वाला की लपटों रूपी जिह्वा में दमक रही है. अम्बा के रूप में मां का स्नेह उड़ेल देती है, जैसे किसी शिशु को स्तनपान करते हुए अपनी ममतामयी मां का स्नेह मिल रहा हो. त्रिपुर सुन्दरी के रूप में अद्वितीय सम्मोहन है. और महाकाली के रूप में नरमुण्डों की माला पहने भयानक नृत्य करती है. यद्यपि वह निर्गुण है तथापि समय-समय पर दुष्टों के नाश के लिए अवतार धारण करती है.
देवी की उत्पति
देवी की उत्पत्ति के बारे में दुर्गा सप्तशती के दूसरे अध्याय में विस्तार से बताया गया है. देवता जब दैत्यों के आतंक और अत्याचार से त्रस्त हो गए, तो वे ब्रह्मा जी की शरण में गए. ब्रह्मा जी से उन्हें बताया कि वरदान मिला होने के कारण दैत्यराज की मृत्यु किसी कुंवारी कन्या के हाथ से ही संभव होगी तो सब देवताओं ने अपने सम्मिलित तेज से देवी के इस रूप को प्रकट किया. अलग-अलग देवताओं के इस तेज से ही देवी के अंग बने.
भगवान शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से मस्तक के केश, विष्णु के तेज से उनकी भुजायें, चन्द्रमा के तेज से स्तन, इन्द्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी के तेज से नितम्ब, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से दोनों पैरों की उँगलियाँ, वसुओं के तेज से दोनों हाथ की उंगलियां, प्रजापति के तेज सारे दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौंहें, वायु के तेज से कान प्रकट हुए. इसी प्रकार अन्य देवताओं के तेज से देवी के भिन्न-भिन्न अंग बने.