Shah Bano Case in hindi – शाहबानो केस

शाहबानो मामला और जुड़े तथ्य

शाहबानो केस या शाहबानो मामला आजाद भारत के इतिहास में सबसे चर्चित मामलों में से एक रहा है. शाहबानो केस ने भारत की राजनीति की दिशा मोड़ दी और दुनिया के सामने एक ऐसा नजीर पेश किया जब भारत की विधायिका और कार्यपालिका मुस्लिम कट्टरपंथ के सामने हार गई.

शाहबानो केस ने भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की दिशा में एक ऐसा नजीर स्थापित कर दिया जो आगे आने वाले लंबे समय तक भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था पर एक दाग की तरह लगा रहेगा.

कौन थी शाहबानो?

शाहबानो एक साधारण मुस्लिम महिला थी जिनका निकाह इंदौर के वकील मोहम्मद अहमद खान से 1932 में हुआ. इस निकाह से इस दंपति को 5 बच्चे हुये. इस निकाह के 14 साल बाद उनके खाविंद मोहम्मद अहमद खान ने दूसरा निकाह कर लिया.

दूसरे निकाह के बाद भी वे साथ रहते रहे. मुश्किल तब पैदा हुई जब अप्रेल, 1978 में 62 साल की उम्र में शाहबानो को मोहम्मद अहमद खान ने तलाक दे दिया.

तलाक के वक्त मोहम्मद अहमद खान ने शाहबानो को 200 रुपये महीना देने का वादा किया लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने इस खर्च को देने से इंकार कर दिया. इस इंकार के साथ ही शाहबानो केस शुरू हो जाता है?

क्या है शाहबानो केस या शाहबानो मामला?

शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिये इंदौर की स्थानीय अदालत में एक केस दायर किया और दलील दी कि उसके पास उसके बच्चों और अपनी देखरेख करने के लिये आय का कोई साधन नहीं है इसलिये उसे अपने पति से गुजाराभत्ता दिलवाया जाये.

अपने पति पर भारतीय कोड आफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 125 के तहत अपने पति पर मुकदमा भी दायर किया और गुजाराभत्ते के तौर पर 500 रूपये मांगे.

शाहबानो के पति मोहम्मद अहमद खान ने कोर्ट में दलील दी कि उसने मेहर के तौर पर निकाह के वक्त तय 5 हजार 400 रूपये की रकम अदा कर दी है और इसके बाद इस्लामिक कानून के मुताबिक उसकी तरफ से शाहबानो को गुजाराभत्ता देना आवश्यक नहीं है.

कोर्ट ने इस दलील को मानने से इंकार कर दिया और अगस्त 1979 को शाहबानो के पति को 25 रूपये प्रतिमाह गुजरा भत्ता देने के आदेश दे दिये.

कोर्ट के इस फैसले पर मध्यप्रदेश हाई कोर्ट में शाहबानो द्वारा रिव्यू पिटिशन लगाई गई. 1 जुलाई 1980 को हाईकोर्ट ने रिव्यू पिटिशिन पर शाहबानो के पक्ष में फैसला देते हुए गुजराभत्ते में इजाफा करते हुये इसे 179.20 रूपये कर दिया. शाहबानो के पति ने इस फैसले के विरूद्ध भारत की सर्वोच्च अदालत में अपील की.

शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

शाहबानो के पक्ष में हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद पति मोहम्मद अहमद खान ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. सुप्रीम कोर्ट में उसकी तरफ से तर्क दिया कि उसने दूसरा निकाह कर लिया है, जो कि इस्लाॅमिक लाॅ में जायज है और इस वजह से पत्नि के तौर पर वह गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट में इस मसल को सबसे पहले 3 फरवरी, 1981 को दो जजों की बेंच द्वारा सुना गया. इन दो जजों जिनमें मुर्तजा फजल अली और ए. वरदराजन शामिल थे. मामले की गंभीरता को देखते हुये इस बेंच ने बडी बेंच को यह मामला सुनने के लिए रेफर कर दिया.

इस मामले को 5 जजों की बेंच द्वारा सुना जाने लगे. इसी बीच इस मामले में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद बीच इस बीच पक्षकार बन गये. इस 5 जजों वाली बेंच में तत्कालीन मुख्य न्यायधीश श्री चंद्रचूड़, न्यायधीश रंगनाथ मिश्रा, न्यायधीश डी.ए. देसाई, न्यायधीश ओ. चिनप्पा रेड्डी और ई.एस. वेंकटरमैया शामिल थे.

इस मामले की सुनवाई करीब चार साल तक चलती रही और 23 फरवरी, 1985 को सुप्रीम कोर्ट ने एकमत से हाईकोर्ट द्वारा दिये गये फैसले को सही ठहराया. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के दौरान देश में सिविल कोड की कमी पर भी अपनी बात रखी और इसकी कमी को इंगित किया.

शाहबानो केस में क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला?

शाहबानो मामले में फैसला सुनाते हुये सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में कोई विवाद नहीं है कि सीआरपीसी की धारा 125 जिसके तहत हाईकोर्ट ने शाहबानो के पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया है, वह मुस्लिमों पर भी लागू होता है.

यह धारा किसी जाति, धर्म और वर्ण में कोई भेद नहीं करती है. सीआरपीसी की धारा 125 के तहत शाहबानो के पति को गुजारा भत्ता देना ही होगा.

क्या है सीआरपीसी की धारा 125?

शाहबानो केस के केन्द्र में धारा 125 ही थी जिस को लेकर यह विवाद बनाया गया कि यह मुस्लिम लाॅ के हिसाब से नहीं है इसलिये यह मुस्लिमों पर लागू नहीं की जा सकती है. इस धारा को मोटे तौर पर समझे तो यह धारा पत्नी, बच्चों और अभिभावकों के संरक्षण के लिये लागू की गई थी.

इस धारा में 5 सबसेक्शन है जो पुरूष या स्त्री को अपना गुजारा न करने में सक्षम पत्नि, बच्चों और वृद्ध माता को भत्ता देना अनिवार्य बनाता है. इसमें अधिकतम 500 रूपये गुजारा भत्ता दिया जा सकता है.

शाहबानो केस पर मुस्लिम संगठनों का आंदोलन

शाहबानो केस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही कई मुस्लिम तबकों में गहरे गुस्से और रोष का असर देखने को मिला और कई संगठन इस फैसले के विरोध में सड़क पर उतर आये. कई मुस्लिम तबको को इस बात की आपत्ती थी कि इस फैसले से उनके धार्मिक अधिकारों का हनन हो रहा है.

सुन्नी बरेलवी पंथ के उलेमा उबैदुल्लाह खान आजमी और सैयद काजी के साथ ही मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के सदस्यों ने इस फैसले का खुल कर विरोध किया. उनका कहना था कि मुस्लिम होने के कारण उनकी इस देश में अलग पहचान है और इसलिये इस फैसले को शरई कानून की निगाह से देखना चाहिये न कि सीआरपीसी के कानून से.

शाहबानो केस में सरकार ने कैसे पलटा सुप्रीम कोर्ट का फैसला?

1985 में जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया उस से एक साल पहले कांग्रेस इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुये चुनावों में भारी बहुमत से चुनकर आई थी. राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री बने थे. शाहबानो केस से उठे तूफान को शांत करने के लिए कई कांग्रेसी नेताओं ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दो तिहाई बहुमत से बदल देने की सलाह दी.

राजीव गांधी ने उनकी बात मान ली और इस फैसले को पलटने के लिये संसद में द मुस्लिम विमन (प्रोटेक्शन आफ राइट्स आन डाइवोर्स) एक्ट, 1986 लाया गया. इस एक्ट में इस बात की व्यवस्था की गई कि इस्लामिक कानून के अनुसार मुस्लिम महिलाओं को तलाक की प्रक्रिया में केवल इद्दत के दौरान ही अपने शौहर की ओर गुजारा भत्ता दिया जायेगा.

इस एक्ट को संसद द्वारा पास कर दिया गया और इसी के साथ कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का एक कभी न मिटने वाला किस्सा हमेशा के लिये अस्तित्व में आ गया.

शाहबानो केस टाइमलाइन Shah Bano Case Timeline

1932: शाहबानो का निकाह इंदौर के वकील मोहम्मद अहमद खान से में हुआ.

1978ः 62 साल की उम्र में शाहबानो को मोहम्मद अहमद खान ने तलाक दे दिया.

अगस्त 1979ः लोअर कोर्ट ने शाहबानो के पति को 25 रूपये प्रतिमाह गुजरा भत्ता देने के आदेश दिये.

1 जुलाई 1980ः हाईकोर्ट ने भी शाहबानो के पक्ष में फैसला देते हुए गुजराभत्ते में इजाफा करते हुये इसे 179.20 रूपये कर दिया. शाहबानो के पति ने इस फैसले के विरूद्ध भारत की सर्वोच्च अदालत में अपील की.

3 फरवरी, 1981ः सुप्रीम कोर्ट में इस मसल को सबसे पहले को दो जजों की बेंच द्वारा सुना गया.

23 फरवरी, 1985ः सुप्रीम कोर्ट ने एकमत से हाईकोर्ट द्वारा दिये गये फैसले को सही ठहराया.

1986ः फैसले को पलटने के लिये संसद में द मुस्लिम विमन (प्रोटेक्शन आफ राइट्स आन डाइवोर्स) एक्ट, 1986 पास किया गया.

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