NRC National register of citizens in Hindi- एनआरसी

एनआरसी और विवाद का इतिहास – आसाम सरकार का राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) 

एनआरसी –  राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) का पहला ड्राफ्ट जारी कर दिया. लंबे समय से आसाम में चल रहे बांग्लादेशी घुसपैठ के विवाद को दूर करने की कोशिश में आसाम सरकार ने की है.

एनआरसी के मुताबिक, सिर्फ 1.9 करोड़ लोगों को ही भारत का वैध नागरिक माना गया है. जबकि, कुल 3.29 करोड़ लोगों ने इसके लिए आवेदन किया था. इस एनआरसी ड्राफ्ट का उद्देश्य असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान करना और उन्हें असम से बाहर निकालना है.

सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी का आदेश दिया था. जल्दी ही वेरिफिकेशन प्रोसेस पूरी होने के बाद एनआरसी दूसरा ड्राफ्ट भी जारी किया जाएगा. दूसरे ड्राफ्ट में छूट गए वैध नामों को शामिल किया जाएगा.  इस विवाद की जड़ इतिहास में छुपी हुई है और इसको लेकर राज्य में समय-समय पर विवाद और आंदोलन होते रहे हैं, आइए जानते हैं एनआरसी का इतिहास…

एनआरसी और असम का इतिहास

असम का अर्थ है अनुपम या अद्वितीय. इस शब्द की उत्पति संस्कृत शब्द असोमा से हुआ है. कुछ विद्वान इस शब्द की उत्पति अहोम से मानते हैं. अहोम वंश ने इस भूमि पर लंबे समय तक शासन किया है.

1826 में यह क्षेत्र यंडाबू की संधि के तहत बर्मा से ब्रिटिश सत्ता को प्राप्त हुआ. भारत के राज्य असम का कुल क्षेत्रफल 78,483 वर्ग किलोमीटर है. इसकी कुल जनसंख्या 2,66,38,407 है. दिसपुर इसकी राजधानी है और असमिया इस क्षेत्र में बोली जाने वाली मुख्यभाषा है.

असम को पूर्वाेतर भारत का प्रहरी और पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है. यह भूटान और बंगलादेश से लगी भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के समीप है. असम के उत्तर में भूटान और अरूणाचल प्रदेश, पूर्व में मणिपुर, नगालैंड और अरूणाचल प्रदेश तथा दक्षिण में मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा है.

असम कृषि प्रधान राज्य है और चावल यहां की मुख्य फसल है. जूट, चाय, कपास, तिलहन, गन्ना, आलू आदि नकदी फसलें हैं. असम अपने वन्यजीव अभ्यारण्यों के लिए प्रसिद्ध है. राज्य में कुल 11 वन्यजीव अभ्यारण्य और पांच राष्ट्रीय पार्क हैं.

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान एक सींग वाले जंगली गैंडों और मानस बाघ अभ्यारण्य रॉयल बंगाल टाइगर के लिए प्रसिद्ध है. कृषि आधारित उद्योगों में चाय का स्थान प्रमुख है. राज्य में चार तेलशोधक कारखाने हैं जिनमें से डिगबोई का तेलशोधक कारखाना खासा मशहूर है.

राज्य में कई किस्म के रेशम का उत्पादन भी किया जाता है. मूंगा रेशम की एक ऐसी किस्म है जिसका उत्पादन सिर्फ असम में किया जाता है. बिहू असम का प्रमुख पर्व है. यह साल में तीन बार मनाया जाता है- रंगीला बिहू या बोहाग बिहू फसल की शुरूआत का प्रतीक है और इससे नए वर्ष का भी शुभारंभ होता है.

भोगली बिहू या माघ बिहू फसल कटाई का त्यौहार है और काती बिहू या कांगली बिहू शरद ऋतु का एक मेला है. असम की परंपरागत नाट्यशैली को भावना के नाम से संबोधित किया जाता है. ब्रह्मपुत्र नदी में स्थित माजूली दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है. ब्रह्मपुत्र राज्य में बहने वाली प्रमुख नदी है.

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असम एक अशांत परिदृश्य

असम में आतंंकवाद की समस्या की शुरूआत असमी लोगों के पहचान संकट के साथ तब शुरू हुई, जब भारत विभाजन के समय तब के पूर्वी पाकिस्तान से भारी संख्या में शरणार्थियों ने असम की ओर पलायन करना शुरू कर दिया.

हालांकि, इस बात को आधी शताब्दी बीत चुकी है लेकिन आज भी बांगलादेश से पलायन करके भारत आने वालों की संख्या में कमी नहीं हुई है और इस समस्या ने पूरे उत्तर-पूर्व के जनसांख्यिकीय आंकड़ों को बदल कर रख दिया है.

असम में इस घुसपैठ को लेकर असंतोष धीरे-धीरे बढऩे लगा और जुलाई 1979 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (एएएसयू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) के नेतृत्व में आंदोलन की शुरूआत हुई.

इन आंदोलनकारियों की मांग थी कि असम से रह रहे सभी बाहरी लोगों को बाहर किया जाए और इन बाहरी लोगों की परिभाषा तय करते हुए 1951 के बाद आए सभी लोगों को इस श्रेणी में शामिल करने की वकालत की. इसी परिभाषा को लेकर भारत सरकार और आंदोलनकारियों के बीच मतभेद उभरे और बातचीत असफल रही.

दरअसल, भारत सरकार 1971 के बाद आए लोगों को ही बाहरी मानने पर अपनी सहमति दे रही थी और आंदोलनकारी इससे संतुष्ट नहीं थे. बातचीत में असफल होने के बाद आंदोलनकारियों ने शांति का मार्ग छोड़ दिया और आंदोलन ने हिंसात्मक रूख धारण कर लिया.

सरकार को राज्य में शांति व्यवस्था कायम करने के लिए इसी साल दिसम्बर में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. इस अशांति के बीच शिवसागर में 7 अप्रेल 1979 के बीच यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम या उल्फा अस्तित्व में आया. परेश बरूआ इस संगठन का अध्यक्ष था और अरविंद राजखोआ प्रमुख तथा अनुप चेटिया प्रमुख सचिव के तौर पर काम करने लगे.

प्रदीप गोगोई इस संगठन का उपाध्यक्ष चुना गया जो 8 अप्रेल 1998 से कैद में है. इस संगठन का मुख्य उद्देश्य असम को बाहरी लोगों से निजात दिलाना और एक स्वतंत्र असम की स्थापना करना है. इस संगठन ने आसू और असम गण संग्राम परिषद के अपने हाथों में ले लिया.

यह आतंकवाद के बल पर अपने लक्ष्यों की पूर्ति में विश्वास करता था. अपने संगठन के उद्देश्यों को समझाते हुए उल्फा के पूर्व प्रचार सचिव सुनील नाथ ने लिखा था कि उल्फा तो केवल साफतौर पर  हो रहे अन्यायों के विरूद्ध समाज में प्रचलित असंतोष की भावना का ही लाभ उठा रहा है.

राज्य पुलिस और सेना सहित अन्य सुरक्षा बलों को, अर्ध न्यायिक शक्तियों से लैस करने के बाद दूषित हुए लोकतांत्रिक वातावरण ने आम असमवासियों में पृथकतावाद तथा असमी युवाओं में खासतौर पर सशस्त्र पृथकतावाद को बढ़ावा देने में उत्प्रेरक का काम किया है. 

(सक्सेसनिस्ट इंसर्जेन्सी एंड दि फ्रीडम ऑफ माइन्ड्स) राज्य में शांति व्यवस्था को बनाए रखने और उल्फा पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए 28 मार्च 1980 से सेना तैनात कर दी गई.

सेना तैनाती ने कोढ़ में खाज का काम किया और लोगों में असंतोष और बढ़ गया. सरकार ने एक और कदम आगे बढ़ाते हुए असम के कछार और उत्तरी कछार क्षेत्र को छोड़कर असम अशांत क्षेत्र अधिनियम 1955 के तहत शेष असम को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया.

6 अप्रेल, 1980 को सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) अधिनियम, 1958 (एएफएसपीए)लागू कर दिया जो आगे चलकर बड़े विवाद का कारण बना. इसी अधिनियम की वजह से कई बार भारत सरकार को मानवाधिकारों के हनन का अपराधी घोषित करने की चेष्टा की गई.

इसके बाद आने वाले तीन सालों तक वार्ता के कई दौर चले लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. बातचीत में असफलता मिलने के बावजूद केन्द्र सरकार ने असम में एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन का प्रयास शुरू कर दिया और परिणिती के तौर पर फरवरी 1983 में राज्य में विधानसभा चुनाव करवाए गए और कांग्रेस ने बहुमत प्राप्त किया.

हितेश्वर सैकिया मुख्यमंत्री चुने गए. इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाने का भी असम के असंतोष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और हिंसा का दौर जारी रहा.

इसी बीच केन्द्र में परिवर्तन हुआ और राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने खुले दिल से असम के अंसतोष को सुलझाने के लिए वार्ता की पहल की.

15 अगस्त 1985 को असम समझौता अस्तित्व में आया. हालांकि सरकार अपने पिछले कदम पर ही कायम रही और बाहरी व्यक्ति को परिभाषित करने के लिए 25 मार्च 1971 की तारीख निर्धारित की गई.

इसके बाद आए सभी व्यक्तियों को सरकार ने राज्य से बाहर निकालने का वादा किया. यह समझौता आसू और असम गण संग्राम परिषद के साथ हुआ था.

इसके बाद इस संगठन के नेताओं ने असम गण परिषद के रूप में काम करना शुरू कर दिया जो असम की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास करती थी. इस समझौते को उल्फा ने मानने से इंकार कर दिया और अब तक साथ चल रहे संगठन असम गण परिषद से दूरियां बना ली.

इसके ठीक बाद 1985 में हुए आम विधानसभा चुनावों में असम गण परिषद सत्ता में आई और प्रफुल्ल कुमार मंहत मुख्यमंत्री चुन लिए गए. उल्फा ने लगातार अपना आंदोलन जारी रखा और बातचीत के कई दौर हो जाने के बाद भी वह भारत सरकार के साथ किसी समझौते तक पहुंच पाने में असफल रही.

संगठन ने अपना विस्तार जारी रखा और वह भारत विरोधी अन्य संगठनों से स्वयं को जोड़ने की कवायद में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और पूर्वाेतर के अन्य आतंकवादी संगठनों के साथ गठजोड़ करने लगा. उसने बाहरी व्यक्तियों की हत्या, बम धमाकों और सुरक्षाबलों के साथ गुरिल्ला पद्धति से लडक़र राज्य में आतंकवाद का वातावरण तैयार किया.

इस असुरक्षा के वातावरण ने नब्बे तक इतना जोर पकड़ लिया कि सरकार को राष्ट्रपति शासन स्थापित करने के लिए मजबूर होना पड़ा और 28 नवंबर 1990 को एक बार फिर से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया.

उल्फा को गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम 1967 के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया. राज्य को एक बार फिर से सेना के हवाले कर दिया गया और उसने शांति स्थापित करने के लिए ऑपरेशन बजरंग चलाया जिसमें बड़ी संख्या में सुरक्षाबल और आतंकवादियों को मौत के मूंह में जाना पड़ा लेकिन इससे उल्फा कमजोर हो गया और शांति स्थापित हो सकी.

शांति स्थापना के तुरंत बाद ही एक बार फिर से लोकतांत्रिक सरकार के गठन के लिए 1991 में विधानसभा चुनाव करवाए गए और असम गण परिषद को हार का मुंह देखना पड़ा और कांग्रेस सत्ता में आई.

उल्फा चुनाव परिणामों से खासा असंतुष्ट हुआ और उसने एक बार फिर से अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए राज्य में हत्याओं का दौर शुरू कर दिया. सेना को एक बार फिर हस्तक्षेप करना पड़ा.

आंतकवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को इस बार सेना ने ऑपरेशन राइनो नाम दिया लेकिन सरकार ने असम के लोगों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए लिए ऑपरेशन को बीच में ही रोक दिया और असंतुष्टों को बातचीत की टेबल पर आने के लिए आमंत्रित किया.

साथ ही, सरकार ने आत्मसमर्पण कर देने वाले आतंकवादियों के लिए आम माफी की भी घोषणा की ताकि उन्हें एक बार फिर से मुख्यधारा से जोड़ा जा सके. इस फैसले की कई विशेषज्ञों ने आलोचना की क्योंकि कमजोर पड़ चुके उल्फा को जड़ मूूल से मिटाने का यह अच्छा मौका था.

मौके का लाभ उठा कर एक बार फिर से उल्फा ने अपने आप को मजबूत कर लिया और बातचीत से स्वयं को हटा लिया. भारतीय सेना से स्वयं को बचाने के लिए उल्फा ने भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश में अपने कैम्प खोल लिए और संगठन के बड़े नेताओं ने इन्हीं देशों में शरण ली.

हालांकि, म्यांमार ने इनको प्रश्रय देने से इंकार कर दिया और 1995 में म्यांमार की सेना ने भारतीय सेना के साथ मिलकर उल्फा के शिविरों की सफाई के लिए ऑपरेशन गोल्डन बर्ड चलाया.

1996 में हुए विधानसभा चुनावों में एक बार फिर से असम गण परिषद को सफलता प्राप्त हुई. इस बीच उल्फा का उत्पात कुछ कम हुआ लेकिन भूटान और बांग्लादेश के अपने कैम्पों से वे लगातार अपने को संगठित करने का काम कर रहे थे.

भूटान ने भारत सरकार से वादा किया कि वे भारत के खिलाफ किसी भी संगठन को अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देंगे और भारत सरकार के दबाव के परिणामस्वरूप 2003 में भूटान की सेना उल्फा के आतंकवादी शिविरों को नष्ट करने के लिए ऑपरेशन ऑल क्लियर चलाया.

इस ऑपरेशन ने इस आतंकवादी संगठन की जड़ पर वार किया और यह खात्मे की कगार पर पहुंच गया लेकिन पहले की ही तरह भारत सरकार ने उसके खिलाफ सैन्य कार्रवाई रोककर उसे बातचीत का न्यौता दे डाला और उल्फा को फिर से संगठित होने का मौका मिल गया.

हमेशा की तरह वार्ता किसी नतीजे पर नहीं पहुंची और उल्फा ने अपनी शक्ति दर्शाने के लिए बम विस्फोट और नरसंहार का सहारा लेना शुरू कर दिया. तब से लेकर अब तक इस दिशा में भारत सरकार और उल्फा में कोई सकारात्मक बातचीत नहीं हुई है.

हालांकि उल्फा को अपनी आतंकवादी गतिविधियों के कारण आमजन का समर्थन मिलना कम हो गया लेकिन अभी भी वह आजाद असम के झंडे को उठाए हुए है. लोगों में अभी भी असंतोष बना हुआ है क्योंकि बाहरी लोगों की समस्या को हल करने के लिए अभी भी कड़े कदम उठाने में सरकार विफल रही है.

असम की दूसरी प्रमुख समस्या बोडो उग्रवाद या अलगाववाद था. हालांकि इस समस्या का हल कर लिया गया है, लेकिन आगे कोई जनजाति इस तरह का अलगाववादी आंदोलन नहीं चलाएगी, यह देखने वाली बात है.

बोडो जनजाति असम की सबसे पुरानी जनजाति के रूप में जानी जाती है. साथ ही बोडो और असमियों के बीच हमेशा विवाद रहा है क्योंकि दोनों ने एक दूसरे को स्वीकार करने और सह-अस्तित्व से इंकार कर दिया है.

बोडो असम पर अपना अधिकार मानते हैं और इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए अपने लिए कुछ विशेषाधिकारों की मांग करने लगे ताकि बहुसंख्यक असमिया जनसंख्या के बीच अपनी संस्कृति और जाति पहचान की रक्षा की जा सके.

बोडो जनजाति के इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए 1967 में ऑल बोडो स्टूडेन्टस यूनियन ने आंदोलन का आगाज किया. उपेन्द्रनाथ ब्रह्मा के नेतृत्व में आंदोलन ने जोर पकड़ लिया.

शांतिपूर्ण आंदोलनों से अपने उद्देश्य की पूर्ति न होता देखकर बोडो लोगों ने हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लिया और 1989 में बोडो सिक्योरिटी फोर्स नाम के उग्रवादी संगठन की स्थापना कर डाली जो आगे चलकर नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के नाम से मशहूर हुआ.

इस संगठन का मुख्य उद्देश्य एक स्वतंत्र बोडोलैंड की स्थापना करना था. कई साल तक आतंकवादी गतिविधियां संचालित करने के बाद आखिर में 20 फरवरी 1993 में केन्द्र सरकार, असम सरकार और बोडो नेताओं ने असम की सीमाओं के भीतर ही एक स्वायत्तशासी बोडोलैंड परिषद की स्थापना समझौते पर हस्ताक्षर किए और 2003 में समझौते के अस्तित्व में आते ही सालों से चल रहा बोडो आंदोलन अपनी परिणिती को पहुंच गया.

एनआरसी और Chicken Neck Vs Siliguri Corriodor चिकन नैक बनाम सिलिगुडी कॉरिडोर

सिलिगुडी कॉरिडोर अपने दूसरे नाम चिकन नैक से ज्यादा जाना जाता है. दरअसल यह एक पतला सा गलियारा शेष भारत को उत्तर-पूर्व से जोड़ता है. यह पट्टी कहीं पर महज 21 किलोमीटर से अधिकतम 40 किलोमीटर तक चौड़ी है.

इसके एक और नेपाल तथा दूसरी ओर बांग्लादेश स्थित है और यह भौगोलिक स्थिति इसे सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण बनाती है. इसी वजह से इसे चिकन नैक कहा जाता है क्योंकि इस संकरे गलियारे पर कब्जा होने की स्थिति में भारत का अपने उत्तर-पूर्वी भाग से संपर्क एकदम टूट जाएगा.

यह भारत की स्थिति कमजोर को बनाता है. इस संकरे से गलियारे का सिलिगुड़ी सबसे प्रमुख नगर है. चिकन नैक 1947 में भारत-पाक विभाजन के दौरान नक्शे पर आया. नक्शे पर इस भाग को इसलिए चिह्नित किया गया ताकि भारत का संपर्क असम से जोड़ा जा सके. चिकन नेक पश्चिम बंगाल राज्य के अंतर्गत आता है.

IMDT Act in Hindi अवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण पहचान) कानून (आइएमडीटी एक्ट)

1985 में हुए असम समझौते के अनुसार 25 मार्च 1971 के बाद आए विदेशी लोगों को असम से बाहर निकालने के लिए 15 अक्टूबर 1983 को भारत सरकार ने एक अध्यादेश पारित कर ऐसे ट्रिब्यूनलों को गठित किया जिनका काम अवैध अप्रवासियों की पहचान कर उन्हें देश से बाहर  निकालना था.

यह अध्यादेश 12 दिसम्बर 1983 को संसद में पारित हुआ और कानून अस्तित्व में आया. कानून केवल असम राज्यक्षेत्र में मान्य था. इसका प्रमुख उद्देश्य अवैध बांगलादेशियों की पहचान कर उन्हें वापस भेजना था. इस अवैध पहचान को सुनिश्चित करने का कार्यभार इन विशेष ट्रिब्यूनलों को सौंपा गया.

असम के अलावा शेष राज्यों में इस समस्या से निपटने के लिए विदेशी नागरिक कानून, 1946 को आधार बनाया जाता है. दोनों कानूनों में एक बड़ा अंतर है.

आईएमडीटी एक्ट के तहत किसी भी व्यक्ति की विदेशी पहचान को सिद्ध करने की पूरी जिम्मदारी शिकायतकर्ता पर होती है अगर वह इसमें असफल होता है तो विदेशी को आरोप से बरी मान लिया जाता है जबकि विदेशी नागरिक कानून के तहत अपनी नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी स्वयं आरोपी पर होती है.

आईएमडीटी एक्ट के तहत अवैध प्रवासी को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि

1. ऐसा व्यक्ति जो भारत में 25 मार्च 1971 को या उसके बाद अवैध तरीके से आया है

2. एक विदेशी था

3. भारत में बिना पासपोर्ट या उसके अलावा कानूनी कागजातों के बिना प्रवेशित हुआ है.

साथ ही इस एक्ट की धारा 4 व 9 में इस बात की भी व्यवस्था की गई है कि जो व्यक्ति 25 मार्च 1971 से पहले भारत में आए वे इस कानून के तहत नहीं आते हैं.

इस कानून पर सबसे बड़ा विवाद इस बात को लेकर है कि अवैध प्रवासी को अवैध साबित करने की जिम्मेदारी शिकायतकर्ता पर होने को लेकर है. ऐसी स्थिति में अवैध प्रवासी की स्थिति मजबूत हो जाती है क्योंकि उसे अपना पक्ष रखने से छूट मिल जाती है और सबूतों के अभाव में शिकायतकर्ता अपनी बात को साबित नहीं कर सकता.

ज्यादातर अवैध प्रवासियों ने अपने नाम के वोटर आईडी कार्ड व राशन कार्ड बना लिया है. ऐसी सूरत में यह और मुश्किल होता जा रहा है. वोट की राजनीति ने और ज्यादा काम बिगाड़ दिया है.

इस कानून की अक्षमता को लेकर असम गण परिषद के नेता और ऑल असम स्टूडेंटस यूनियन के अध्यक्ष सरबानंद सोनोवाल ने अप्रैल, 2000 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें आईएमडीटी एक्ट की वैधता पर ही प्रश्रचिह्न लगा दिया गया था.

याचिकाकर्ता ने इस कानून के औचित्य पूछते हुए कहा था कि इस कानून से अवैध अप्रवासियों के हितों की रक्षा होती है जबकि इसे उन्हें रोकने के लिए बनाया गया था.

साथ ही विदेशी नागरिकों की पहचान करने के लिए जब पहले से ही देश में एक कानून का अस्तित्व है तो इसी तरह के दूसरे कानून का कोई अर्थ नहीं रह जाता है.

सुप्रीम कोर्ट ने 12 जुलाई 2005 को इस याचिका का निपटारा करते हुए अपने निर्णय में इसे अवैध घोषित कर दिया और इस कानून के तहत गठित ट्रिब्युनलों को भंग करने का आदेश दिया.

एनआरसी के पहले ड्राफ्ट में अपना नाम कैसे चेक करें

– एक जनवरी से 31 जनवरी 2018  तक एनआरसी सेवा केन्द्र में जाकर पता करें.

 

– एनआरसी वेबसाइट www.nrcassam.nic.in, www.assam.mygov.in and www.assam.gov.in पर जाएं औऱ देखें कि आपका नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में है या नहीं.

–  मोबाइल नम्बर 9765556555 पर ARN लिख कर SMS करें और अपना नाम पता करें.

– असम में रहने वाले टोल फ्री नम्बर 15107 पर तथा असम से बाहर रहने वाले 18003453762 टोल फ्री नम्बर पर फोन कर एनआरसी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में है या नहीं.

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