swami dayanand saraswati biography and Quotes in hindi- महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी

महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी

दयानंद सरस्वती short note on swami dayanand saraswati को आर्य समाज की स्थापना के लिए याद के लिए याद किया जाता है. उनका दिया गया मंत्र वेदों की ओर लौटो ने भारतीय हिंदू समाज को एक बार फिर अपने मूल ग्रंथों से जोड़ने का काम किया.
यह आंदोलन उस समय उठ खड़ा हुआ जब भारती अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के लिए कसमसा रहा था. उपनिवेशिक गुलामी से इतर इस आंदोलन ने हिंदू समाज को सांस्कृतिक गुलामी से आजाद करवाने का काम किया और वेदों के गौरव को एक बार फिर से स्थापित कर दिया.
महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखा गया ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश ने खण्डन मण्डन से भारतीय शास्त्रार्थ के पुराने वैभव को एक बार फिर से जिंदा कर दिया और तर्क को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई.

महर्षि दयानंद सरस्वती का प्रारंभिक जीवन

दयानंद जी का जन्म सन् 1824 में काठियावाड प्रांत में मौरवी राज्य के टकारा नगर के राजमहल के नजदीक जीवापुर नाम के मोहल्ले में हुआ. dayanand saraswati real name उनका नाम मूलशंकर रखा गया. मूल शंकर नाम रखने के पीछे वजह यह रही की उनके पिता शैव अनुयायी और शिव के परम भक्त थे. मूलशंकर के घर में माहौल धार्मिक था और वेद पाठ इस परिवार के जीवन का अभिन्न हिस्सा था. 
बालक दयानंद के मन में वेद के बीज इन्हीं संस्कारों की वजह से पड़े. आठ वर्ष की अल्पायु में उनका उपनयन संस्कार हुआ और उन्होंने वेद पाठ करना शुरू कर दिया. बालक मूलशंकर अपने नाम की तरह विलक्षण थे और स्मरण शक्ति इतनी चमत्कारी थी कि सिर्फ 5 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने कई वेदों मंत्रों को आत्मसात कर लिया था. 14 साल की अवस्था तक आते-आते उन्होंन यजुर्वेद पर अधिकार प्राप्त कर लिया.

महर्षि दयानंद सरस्वती की युवावस्था 

बालक मूलशंकर को वेदों का मूल पता चला तो उन्हें कर्मकाण्ड पर अविश्वास हो गया और वेद के परमब्रह्म के दर्शन पर उनका विश्वास और पक्का हो गया. अपने पिता के बहुत जोर देने के बाद भी वे शिव की प्रतिमा की पूजा करने के लिए तैयार नहीं हुए. 
कुछ समय बाद उनके जीवन में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. उनकी 14 साल की भगिनी की असमय मृत्यु हो गई और इसके कुछ समय बाद उन्हें अगाध प्रेम करने वाले चाचा भी मृत्यु की भेंट चढ़ गए. इन घटनाओं से उनमें वैराग्य का संचार हो गया और वे संसार से विमुक्त होने का प्रयास करने लगे. 

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माता-पिता ने जब उनमें वैराग्य की भावना देखी तो उनका विवाह करने का प्रयास किया गया लेकिन मूल शंकर को तो वास्तिवक शिव को खोजना था और पाणिग्रहण की तैयारियों के बीच वे अपने घर से निकल गए. सिर्फ 22 वर्ष की अल्पावस्था में ही उन्होंने गृहत्याग किया और सन्यास धारण कर लिया. 
वे ईश्वर की खोज में योगियों को खोजने लगे ताकि उनसे ईश्वर को खोजने का उपाय पूछ सके. 15 वर्ष तक वे भारत के विभिन्न हिस्सों में योगियों और साधुओं से मिलते रहे. मूलशंकर ने इसके लिए उपयुक्त गुरू की खोज की और उनकी खोज पूर्णानंद सरस्वती पर जाकर समाप्त हुई, जिन्होंने उन्हें दीक्षा देकर नया नाम दिया- दयानंद सरस्वती.

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ज्ञान और ईश्वर की खोज की उनकी प्यास वहां भी शांत नहीं हुई, तभी उन्होंने मथुरा के दण्डी स्वामी विरजानंद जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ. दयानंद को उन्होंने तीन वर्ष तक शिक्षित किया. यहां उन्हें अष्ठाध्यायी, महाभाष्य जैस व्याकरण ग्रंथों को जानने और समझने का मौका मिला. 
वैदिक साहित्य के गहनतम अध्ययन के बाद उन्हें कर्मकांड से विरक्ति हो गई और वे उसके प्रबल विरोधी बन गए. हिंदू धर्म मे कर्मकाण्ड के अंधविश्वास को दूर करने के लिए वे अपने गुरू से आशीर्वाद लेकर निकल गए और धर्म प्रचार में रत हो गए. उन्होंने रूढ़ियों और कर्मकाण्डो का पुरजोर खण्डन किया. उनके इस काम से उस वक्त के पुरोहित उनके विरोधी बन गए और उनके खिलाफ कई तरह के षड़यंत्र रचे. 

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1855 में हरिद्वार में कुंभ मेला लगा जो हिंदु धर्मावलम्बियों का सबसे बड़ा आयोजन था. स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसे धर्मोपदेश का पावन समझा और आबू पर्वत से पैदल चलकर ही हरिद्वार पहुंच गए. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कई सेनानी उनसे वहां मिले और महर्षि दयानंद सरस्वती ने उन्हें क्रांति का विचार और प्रेरणा प्रदान की.
1867 में स्वामी जी ने कुंभ के अवसर पर हरिद्वार और ऋषिकेश के बीच अपनी पाखंडखंडिनी पताका स्थापित की. यह पहला अवसर था जब स्वामी जी ने एक विशाल जनसमूह के सामने हिंदू धर्म की बुराइयों को खंडन किया और वैदिक धर्म के प्रतिपादन की बात कही. हिंदू धर्म की उनकी नई व्याख्यायों ने उनकी प्रसिद्धी को दूर-दूर तक फैला दिया. उन्होंने उस समय प्रचलित बहुदेववाद, बाल विवाह और मूर्ति पूजा का खंडन किया और वेदों को हिंदू धर्म का मूल बताया.
1872 में वे जब कलकत्ता पहुंचे तो लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे मिलने का आग्रह किया तो वे नार्थब्रुक से मिलने पहुंचे. लाॅर्ड नार्थब्रुक ने उनसे अपनी सभाओं में ब्रिटिश राज के समर्थन में बोलने के लिए कहा तो दयानंद सरस्वती ने स्पष्ट इंकार कर दिया और यह बैठक वहीं पर समाप्त हो गई. उन्हांेने लार्ड नार्थब्रुक को स्पष्ट कर दिया कि वे भारत की स्वतंत्रता के हिमायती हैं और सदैव रहेंगे. 
कलकत्ता में स्वामी जी ने समकालीन तीन महापुरूषों रामकृष्ण परमहंस, देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचंद्र सेन से मुलाकात की. केशवचंद्र सेन ने ही उन्हें संस्कृत के स्थान पर अपने भाषणों को हिंदी में देने का आग्रह किया और स्वामी जी ने इसे स्वीकार किया.

आर्य समाज की स्थापना dayanand saraswati arya samaj in hindi

केशव चंद्र सेन से मिलने के दौरान वे ब्रह्मसमाज के संपर्क में भी आए. ब्रह्म समाज को देखकर उनके मन में भी एक विचार आया कि उनको भी ऐसे संगठन की स्थापना करनी चाहिए जो वेदों को स्थापित करने का काम करें. 10 अप्रेल 1875 को उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की. आर्य समाज की शाखाओं को उन शहरों में प्रमुखता से खोला गया जहां अंग्रेजों की छावनियां थी. 
आर्य समाज और swami dayanand saraswati book सत्यार्थ प्रकाश ने उनके संदेश को भारतीय जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा बना दिया. जो हिंदू अंग्रेजों के प्रभाव के कारण स्वयं को अंग्रेजियत में ढालने को प्रभावी समझता था वही अब खुद को आर्य समाजी करने में गर्व का अनुभव करने लगा. पूरे देश में भ्रमण और अपना संदेश फैलाते हुए  dayanand saraswati death स्वामी दयानंद सरस्वती ने 30 अक्टूबर, 1883 dayanand saraswati age को 59 साल की उम्र  में अपनी नश्वर देह का त्याग कर दिया. 

दयानन्द सरस्वती के अनमोल विचार

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अगर आप विजेता बनना चाहते हैं तो नुकसान से निपटने की योजना पहले तैयार करनी चाहिए.
-दयानन्द सरस्वती
मानव की आवाज ही संगीत का सबसे उत्तम साधन है.
—  दयानन्द सरस्वती
लोग मुझे इसलिए नहीं समझते क्योंकि मैं सरल हूं, वे मुझे इसलिए समझते हैं क्योंकि मैं स्पष्ट हूं.
—  दयानन्द सरस्वती
आप समाज को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिए, बदले में समाज आपको अपना सर्वश्रेष्ठ देगा.
—  दयानन्द सरस्वती
ऐसे व्यक्ति की सेवा ही सच्ची सेवा होगी, जो आपको आपकी सेवा के बदले में धन्यवाद देने तक में सक्षम न हो.
—  दयानन्द सरस्वती
अगर आपको सही मायनों में स्वयं को मुक्त करना है तो जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार कीजिए.
— दयानन्द सरस्वती
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