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Bappa Rawal Biography-बप्पा रावल की जीवनी

Bappa Rawal Biography-बप्पा रावल की जीवनी

बप्पा रावल का इतिहास- Bappa Rawal History in hindi

बप्पा रावल जिन्हें कालाभोज के नाम से भी जाना जाता है। विदेशी शासको से भारत की रक्षा करने में उनका नाम अग्रणी पंक्ति में लिखा जाना चाहिए। मेवाड़ राजवंश के संस्थापक होने के साथ ही उन्हें हिन्दुआ सूरज की संज्ञा दी जाती है। मुस्लिम आक्रांताओं से उन्होंने मेवाड़ की सरहदों को हमेशा बचाए ही रखा।

फरिश्ता ने अपनी किताब में लिखा है कि- वीर राजा विक्रमादित्य के समय से जहांगीर के समय तक ऐसा कोई न रहा जिसका नाम लिया जाए, अलबत्ता एक राजा राणा राजपूत है जिसके घराने में मुसलमानी जमाने से पहले से राज्य चला आ रहा है। बर्नीयर ने भी बप्पा का उल्लेख एक शक्तिशाली राजा के तौर पर किया है।

बप्पा रावल का आरंभिक जीवन

बप्पा रावल के बारे में किसी एक स्थान पर तथ्य नहीं मिलते है और बहुत से इतिहासकारों ने अपनी किताबों ने उनका थोड़ा बहुत वर्णन किया है। बप्पा रावल का जन्म कब हुआ? ​इतिहासकारों के अनुसार बप्पा रावल का जन्म 713 ईस्वी में हुआ जो कई ऐतिहासिक स्रोतों की तुलना करने पर सही जान पड़ता है।

बप्पा का सम्बन्ध जिस गुहिल वंश से था उसकी पूरी वंशावली नहीं​ मिलती है। ऐसे में बप्पा रावल की वंशावली के बारे में पुख्ता जानकारी का अभाव है हालांकि कवि श्यामलदास बप्पा को शील के पुत्र अपराजित का बेटा मानते हैं।

इस सम्बन्ध में मिले अनेक शिलालेख अलग—अलग तथ्य बताते हैं। बप्पा का बचपन बहुत कठिनाइयों से भरा हुआ था। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनके पिता की मृत्यु उनके काफी छोटे होने के दौरान ही हो गई थी। यह भी माना जाता है कि उनके पिता की मृत्यु भीलों से संघर्ष के दौरान हो गई।

इस संकट के समय में भील ही आगे आया और बप्पा के संरक्षण का कार्य उन्होंने अपने हाथों में ले​ लिया। उनका बचपन उदयपुर से कुछ दूरी पर स्थित नागदा नामक स्थान पर भीलों के साथ बीता।

किवदंतियों में कहा जाता है कि बप्पा को मेवाड़ का राज्य ​हारित ऋषि ने वरदान में दिया हालांकि इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता है। बप्पा ने ही मेवाड़ के कुलदेवता एकलिंग जी को स्थापित किया।

बप्पा रावल का शासन

बप्पा रावल से पहले मेवाड़ पर मौर्यों का राज्य था। बप्पा रावल का व्यक्तित्व विशाल था। उनके खान—पान और पोशाक तथा शारीरिक बल को लेकर ढेरों कथाएं कही जाती है, उन पर विश्वास करना कठिन है लेकिन यह तो माना ही जा सकता है कि उनका शारीरिक बल सामान्य जन की तुलना में कुछ अधिक ही रहा होगा।

अक्सर यह प्रश्न आता है कि बप्पा रावल की​ कितनी रानियां थी? लेकिन इसका सही जवाब नहीं दिया जा सकता है। अपने शासनकाल के दौरान बप्पा ने कई विवाह किये। उनका पहला विवाह नागेन्द्र नगर की राजकुमारी से हुआ।

यह प्रेम विवाह था और इसके लिए उन्हें लंबा समय वनों में छुपते हुए बिताना पड़ा। अपनी मां के कहने पर बप्पा चित्तौड़ गए। उस समय वहां राजा मानसिंह का शासन था। राजा मानसिंह ने उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें अपना सामंत बना लिया।

चित्तौड़ पर हुए एक विदेशी हमले के दौरान bappa rawal की वीरता से प्रसन्न होकर मानसिंह ने उन्हें प्रमुख सामंत बना दिया और सारे सामंत उनके अधीन आ गए। समय के साथ उनकी स्थिति मजबूत होती गई और एक समय ऐसा आया जब उन्होंने मानसिंह को अपदस्थ करके चित्तौड़ का शासन अपने हाथों में ले लिया।

मानसिंह ने 714 से 728 ईस्वी तक शासन किया। जब बप्पा सामंत बने तब उनकी उम्र 15 साल की थी। ऐसे में यह मान लेना चाहिए कि 19 वर्ष की उम्र में 728 ईस्वी में बप्पा ने चित्तौड़ की कमान अपने हाथों में ले ली।

bappa rawal ने करीब 25 साल तक चित्तौड़ पर शासन किया और इस दौरान उन्होंने काश्मीर, कन्धार, ईराक, ईरान, तुरान जैसे राज्यों को पराजि किया और उनकी राजकुमारियों से विवाह किया। बप्पा की एक सौ तीन सन्तानों का वर्णन मिलता है। उनके यवन पुत्रों को नौशेरा पठान कहा जाता है। हिन्दु रानियों से उन्हें 98 पुत्र प्राप्त हुए।

मुस्लिम आक्रमणों का सामना

bappa rawal के समय के ऐतिहासिक प्रमाण कम ही मिलते हैं लेकिन एक बात स्पष्ट है कि उनके शासनकाल में कई प्रयासों के बावजूद मुस्लिम शासन राजस्थान के रास्ते भारत में प्रवेश करने में सफल नहीं हो सके।

गजनी के शासक सलीम को बप्पा ने हराया और उनकी वीरता से पूरा चित्तौड़ प्रभावित हुआ। बप्पा रावल की उपाधियां – राजा बनने के बाद उन्होंने हिन्दू सूर्य, राजगुरू और चम्कवै नाम की तीन उपाधियां धारण की।

bappa rawal rawalpindi – पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर का नाम बप्पा रावल के नाम से ही पड़ा हुआ प्रतीत होता है जो यह भी इंगित करता है कि उनका साम्राज्य अरब की सीमाओं तक स्पर्श करता था।

बप्पा रावल का पूरा नाम

बप्पा रावल का वास्तविक नाम अलग-अलग इतिहासकारों द्वारा अलग-अलग बताया गया है। वीर विनोद में उनका नाम महेन्द्र बताया गया है लेकिन डॉ. गोपीनाथ बप्पा रावल का वास्तविक नाम कालाभोज बताते हैं। बप्पा शब्द दरअसल बापू या पिता जैसा ही सम्बोधन है जो सम्मान में लिया जाता है और रावल एक उपाधि है।

बप्पा का व्यक्तित्व

bappa rawal अपने बाहुबल के लिए विख्यात हैं। उनके लिए कहा जाता है कि वे एक ही झटके में दो भैंसों की बलि दे देते थे। उनका व्यक्त्वि विशालकाय था।

उनकी धोती पैंतीस हाथ की और दुपट्टा सोलह हाथ का हुआ करता था। बप्पा रावल की तलवार का वजन 32 मन था। बप्पा रावल का वजन कितना था, इस कथा से इस बात से अंदाजा भर लगाया जा सकता है। हालांकि इन्हें किवदंतियों का हिस्सा ही माना जाना चाहिए।

बप्पा रावल का सिक्का

बप्पा रावल का सिक्का 1951 में गौरीशंकर ओझा को पहली बार मिला। इस सिक्के का वजन 115 ग्रेन था। इसमें ऊपर की तरफ से ​एक माला बनी हुई है और उसके नीचे श्री बोप्प लिखा हुआ है।

माला के पास एक त्रिशूल गड़ा हुआ है और एक शिवलिंग तथा बैल चित्रित है जो एकलिंग जी का प्र​तीक है। इस शिवलिंग को साष्टांग प्रणाम करते हुए एक व्यक्ति को चित्रित किया गया है।

सिक्के के दूसरे हिस्से में चंवर, छत्र और सूर्य के चित्र मिलते है। साथ ही एक गाय और उसका दूध पीते हुए बछड़े को अंकित किया गया है। इस हिस्से में एक फूल की आकृति भी नजर आती है।

इस सिक्के से यह स्पष्ट होता है कि बप्पा के शासनकाल में सोने के सिक्के चला करते थे। इसके अलावा बप्पा रावल के समय का एक तांबे का सिक्का भी मिलता है जिसका वजन साढ़े सत्ताइस रती है। इस पर श्री बोध लिखा हुआ है।

क्या बप्पा रावल ब्राह्मण​ थें?

बप्पा रावल का सम्बन्ध गुहिल वंश से था। गुहिल वंश को राम की सूर्यवंशी शाखा का हिस्सा माना जाता है। ज्यादातर इतिहासकार इसी तथ्य से सहमत है लेकिन नैणसी की ख्यात में एक कथा का उल्लेख है कि शिलादित्य का पुत्र गु​हादित्य जिसके नाम से गुहिल वंश की स्थापना हुई, ब्राह्मण विज्यादित्य के बेटे के नाम से मेवाड़ में आकर गुहिल या गहलोत वंश की स्थापना की।

हालांकि ज्यादातर इतिहासकार इस कथा से सहमत नहीं है। बप्पा के लिए शिलालेखों में विप्र शब्द का प्रयोग किया गया है लेकिन सिर्फ इसी एक बात से गुहिल वंश को ब्राह्मण वंश नहीं माना जा सकता है। विप्र एक उच्च कुल का संबोधन है।

बप्पा रावल की मृत्यु कब हुई?

बप्पा रावल की मृत्यु कैसे हुई, इस सम्बन्ध में कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिलती है।  यह माना जाता है​ कि सौ साल जीवित रहने के बाद बप्पा ने अपने अंतिम समय में 810 ईस्वी में सन्यास ले लिया था।

बप्पा का देहान्त मेवाड़ के नागदा में हुआ। उनकी समाधी एकलिंग जी से एक मील की दूरी पर स्थित है। इस समाधि को बप्पा रावल की समाधि के नाम से ही जाना जाता है। हालांकि कुछ ऐतिहासिक स्रोत उनकी मृत्यु खुरासान में मानते हैं।

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