मंसूर हल्लाज जिन्होंने अनहलक का नारा दिया और अपनी बात पर टिके रहे, उनकी जान चली गई लेकिन उन्होंने दुनिया को अपने विचारों से इतना प्रभावित किया कि आज तक उनकी बातों से लोग प्रेरणा ले रहे हैं और अपनी जिंदगी बेहतर बना रहे हैं. मंसूर हल्लाज को बहुत बेदर्दी से मारा गया लेकिन देखने वाले बताते हैं कि कैसे आखिरी समय तक उनके होंठों पर मुस्कान तैर रही थी. मंसूर हल्लाज का जीवन संघर्ष और त्याग की महाकथा है.
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मंसूर हल्लाज का आरंभिक जीवन
मंसूर हल्लाज का पूरा नाम मंसूर अल हल्लाज था. उनका जन्म 858 ईस्वी में तत्कालीन फारस और आज के ईरान के बैजा के नजदीक तूर शहर में हुआ था. उनके पिता एक ईरानी मुसलमान थे जो भेड़ों के ऊन का काम करते थे. दरअसल ईरानी में ऊन का काम करने वाले को हल्लाज कहते हैं. मंसूर को अपना उपनाम अपने पिता के काम की वजह से मिला था. अपने काम के सिलसिले में मंसूर हल्लाज के पिता ईराक के एक शहर वासित पहुंच गये जो कुरान की पढ़ाई के लिए मशहूर था.
मंसूर हल्लाज और सूफी आंदोलन
वासित इसके अलावा अरबी संस्कृति का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था. वासित में इस्लाम का प्रभाव देखकर मंसूर के पिता ने जोरास्ट्रियन या फारसी धर्म को छोड़कर इस्लाम कबूल कर लिया.
यहां मंसूर अल हल्लाज को कुरान को सीखने और समझने का मौका मिला और सिर्फ 12 साल की उम्र में उन्होंने पूरी कुरान याद कर ली. ईरान में उन दिनों सूफी सिलसिला बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रहा था. सूफी सिलसिले के ही एक प्रसिद्ध विद्वान अबू मुहम्मद स्हल इब्न अब्द अल्लाह के विचारों से प्रभावित हो गये और उनकी विचारधारा स्हल ए तुस्तरी के अनुयायी हो गये. इसी दौरान उन्होंने फारसी की जगह अरबी को अपनी मुख्य भाषा बनाया और अपनी बात अरबी में कहनी शुरू कर दी.
मसूंर अल हल्लाज जब 20 साल के हुए तो वे बसरा पहुंच गये. यहीं पर उन्होंने निकाह किया. मंसूर ने सूफीयों द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र बसरा में ही मिला. सूफी इसे खिरका कहते हैं. यहां से उन्होंने आगे की यात्रा शुरू की और इसके बाद वह तस्तर शहर आ गया और अपने सिलसिले के कई विद्वानों से मिला लेकिन उसके हाथ निराशा ही लगी.
उन्हें इतना अविश्वास हो आया कि उन्होंने खिरका पहनना ही बंद कर दिया. इसी बीच मशहूर सूफी विद्वान जुनैद बगदादी से मिलने के लिए बगदाद पहुंच गये. जुनैद बगदादी का उनपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा. उनसे मिलने बाद मंसूर हल्लाज इस्लाम के सिद्धान्तों को नये दृष्टि के साथ देखने लगे.
मंसूर अल हल्लाज और विवाद
मंसूर अल हल्लाज इस्लाम के सुन्नी पंथ के अनुयायी थे लेकिन उन्होंने विचारों से स्वयं को कभी नहीं बांधा और आत्मा की आवाज को दुनिया को सुनाते रहे. ईरान या फारस में जब जैदी जंग विद्रोह हुआ तो उन्होंने उनका समर्थन किया और अपने सूफी सिलसिला और अम्र मक्की का विरोध मोल ले लिया हालांकि वे अपनी पूरी जिंदगी सुन्नी ही बने रहे.
उनकी जिंदगी में बड़ा बदलाव तब आया जब वे मक्का में एक साल रोजे और मौन के बाद उनके सोचने का तरीका बदला. उन्होंने अपने प्रार्थना करने के तरीके को बदल लिया. उनके विचारों से लोग प्रभावित होने लगे और उनके सूफी सिलसिले से लोग जुड़ने लगे. उनकी बढ़ती लोकप्रियता से उस दौर के दूसरे आलिम घबराने लगे और उनको लेकर तरह—तरह के षड़यंत्र होने लगे.
षड़यंत्र करने वाले में तजीली और शिया प्रमुख थे जो उस समय ईरान की राजसत्ता पर पूरी तरह हावी थी. उस दौर में ईरान में अब्बासी खलीफा का शासन था जिसने शिया पंथ को विशेष तरजीह दे रखी थी. जब मंसूर हल्लाज का विरोध ज्यादा होने लगा तो वे मक्का छोड़कर पूर्वी ईरान चले गये और 5 साल तक वहीं रहे.
मंसूर हल्लाज इसके बाद दूसरी बार मक्का लौटे तो उनके साथ उनके 400 अनुयायी थे. इस बार भी उनके दुश्मनो ने उन पर बहुत से आरोप लगाये और उन्हें जिन्न का उपासक तक बता दिया.
भारत से लौटने के बाद मंसूर हल्लाज में भारी बदलाव
मंसूर हल्लाज इसके बाद मक्का से निकल कर भारत आ गये. यहां लंबे समय तक रहने के बाद वे एक बार फिर लौटे तो उनका नजरिया और अधिक व्यापक हो चुका था. भारत से वे आखिरी बार मक्का आये. इस बार उनके शरीर पर भारत में पहने जाने वाले वस्त्र थे.
भारत से लौटने के बाद मंसूर उस हालत में आ गये जिसे सूफीज्म में औल कहा जाता है, इसे मन की उच्चतर अवस्था माना गया है. ज्यादातर सूफी अपनी इस अवस्था को दुनिया से छिपाकर रखते हैं लेकिन मंसूर तो बगदाद और बसरा की गलियों में यह कहते हुए घूमता रहा कि मैं अपने हक की खातिर तुम्हारे कानून के हाथों मरना चाहता हूं. पहले तो लोगों ने इन बातों को नजरअंदाज किया और इसे मंसूर हल्लाज का पागलपन ही समझा.
कई लोगों को यह भी लगा कि इस हालत में मंसूर ने जो कुछ कहा वह दिव्य है. मंसूर ने कई अनुपम बातें कहीं जिन्हें उसके साथियों ने एकत्र कर लिया. कई अलौकिक गीत गाये जो आज तक सुनाये जाते हैं.
मंसूर अल हल्लाज और अनहलक
इसी दौर में जब अल हल्लाज लोगों को कुछ बता रहे थे. उनके मूंह से निकला ‘अनहलक’. इसका अर्थ होता है मैं ही खुदा हूं. इस पर कट्टरपंथियों को बहुत आपत्ति हुई और यह बात अदालत तक पहुंची लेकिन अदालत ने मामला मंसूर और अध्यात्म के बीच होने के कारण दखल देने से इंकार कर दिया.
मंसूर हल्लाज के अनहलक के नारे ने तूफान ला दिया और इसकी निंदा की जाने लगी. उनके खिलाफ तरह—तरह के षड़यंत्र किये जाने लगे. आखिर में उन्हें नजरबंद कर दिया गया और 8 साल तक उन्हें कैद में रखा गया. इस बीच बगदाद में उनके मानने वालों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई. आखिर में उनकी बढ़ती लोकप्रियता की वजह से उनका मुकदमा एक बार फिर खोला गया और उन पर काबा के खिलाफ साजिश का आरोप सिद्ध किया गया. काजी ने उनको मौत का फरमान सुना दिया.
मंसूर हल्लाज की दर्दनाक मौत
मंसूर हल्लाज को धर्म के खिलाफ बात करने का दण्ड दिया गया था इसलिए इस बात को सुनिश्चित किया गया कि मंसूर हल्लाज की मौत सबके लिए मिसाल बन जाये. उनको धीरे—धीरे मारने का फरमान दिया गया. 26 मार्च 922 ईस्वी को मंसूर को मारने से पहले 300 कोड़े लगाये गये. \
फिर तमाशा देखने आई भीड़ ने उन पर पथराव किया. जल्लादों ने उनकी हाथों में छेद किये और पैरों को काट दिया. इसके बाद उनकी जीभ काटी गई और जब उनकी मौत हो गई तब उनको जला दिया गया. आखिर में अनहलक का नारा लगाने वाला मंसूर हल्लाज अपने खुदा से मिल गया. उन्होंने कहा था कि फना हो जाना हर इंसान की तकदीर है और आखिर में वे भी फना हो गये.
मंसूर हल्लाज के प्रेरक कथन
मंसूर हल्लाज ने जो भी कहा उनके साथियों ने उन बातों को तवासिन नाम की पुस्तक में संग्रहित कर लिया. इसके अलावा उनकी प्रमुख शिक्षाओं को सत्ताइस रिवायतें, उनकी कविताओं को दिवान एक हल्लाज और उनकी आखिरी रात की बातों को अखबर अल हल्लाज में संग्रहित किया गया है। तवासिन पुस्तक की प्रमुख बातें हैं—
मैंने अपने खुदा को अपनी दिल की आंखों से देखा
मैंने पूछा आप कौन हैं.
उन्होंने कहा मैं तुम हूं.
परवाना पूरी रात शमा के इर्दगिर्द घूमता रहता है. फिर पूरे मिलन की चाह में वह शमा की लहराती हुई लौ में खो जाता है.
शमा की रोशनी सच का इलहाम है. उसकी गर्मी सच की हकीकत है और उसे साथ मिलन सचाई है.
परवाना शमां की रोशनी से खुश नहीं था, और न ही उसकी गर्मी से इसलिए वह उसमे कूद पड़ा ताकि उसकी रोशनी और गर्मी का मुकम्मल एहसास कर सके.
तुम, जो डांवाडोल हो, ‘मैं हूं’ के ‘मैं’ को खुदा का ‘मैं’ मत समझ लेना— न अभी, न फिर कभी, न पहले कभी. ये अर्थ उस आदमी के मतलब के नहीं है जो असावधान है, चंचल है, गलत काम करता है, या सनकी है.
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