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इलाहाबाद prayagraj history in hindi

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प्रयागराज इलाहाबाद का इतिहास, दर्शनीय स्थल और धार्मिक महत्व

इलाहाबाद जिले का नाम बदलकर प्रयागराज allahabad name change to prayagraj कर ​दिया गया है. इसी के साथ इस प्राचीन भारतीय तीर्थ को अपनी पहचान एक बार फिर वापस मिल गई.

प्रयागराज एक ऐतिहासिक नगर है जो पुरातन काल से ही अपने वैभव और धार्मिक महत्व के लिए जाना जाता रहा है. हिन्दु महाकाव्यों और पुराणों में इसका वर्णन मिलता है.

कई संस्कृत स्मृतियों और ऐतिहासिक रचनाओं में भी प्रयागराज की प्रशंसा पढ़ने को मिलती है. यहां हम प्रयागराज के इलाहाबाद बनने और इलाहाबाद के एक बा​र फिर प्रयागराज बनने के इतिहास को बताने का प्रयास कर रहे हैं.

प्रयागराज शब्द का अर्थ-Prayagraj meaning

प्रयाग में गंगा और जमुना एक-दूसरे से मिलती हैं. पुराने समय में बहुत से ज्ञानी-ध्यानी ऋषि लोग यहां आकर अपना-अपना आश्रम बनाकर रहने लगे.

इस तरह धीरे-धीरे यह जगह ऋषि-मुनियों और साधु-महात्माओं का केन्द्र बन गई. इसका नाम दूर-दूर तक फैलने लगा और लोग इन महात्माओं का उपदेश सुनने को यहां आने लगे.

इसलिए यह स्थान ‘तीर्थराज’ यानी ‘तीर्थों का राजा’ कहलाया जाने लगा. ‘प्रयाग’ का मतलब है ‘प्र’ यानी प्रकृष्ट यानी सबसे अच्छा या बहुत और ‘याग’ यानी यज्ञ. जहां पर बहुत से या सबसे अच्छे यज्ञ हुए हो, उसको प्रयाग कहते है.

प्रयागराज का पुराणों में विवरण-Prayagraj Religious importance

प्रयाग राज के बारे में रामायण में लिखा है कि वनवास को जाते समय राम अयोध्या से चलकर श्रृंगपेरपुर आये. यहां उन्होंने केवट से नाव मंगाकर गंगा को पार किया.

श्रृंगपेरपुर से चलकर वे प्रयाग पहुंचे. प्रयाग के पास आने पर उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण से कहा, “हे लक्ष्मण, देखो, यही प्रयाग है, क्योंकि यहां मुनियों का वास है, अब हम गंगा और जमुना के संगम के पास आ गए, क्योंकि दोनों नदियों के जल के मिलने का कल-कल शब्द सुनाई पड़ रहा है.

तुलसीदास ने प्रयाग के बारे में लिखते हुए ‘रामायण’ में राम से कहलवाया है-

चार पदारथ भरा भंडारू।

पुन्य प्रदेश देस अति चारू।।

प्रयाग में राम में भारद्वाज मुनि के आश्रम में आराम किया था. आज भी प्रयाग में कर्नलगंज मुहल्ले में भारद्वाज के नाम से एक स्थान मौजूद है. यहां कई मंदिर बने हुए है और उनमें बहुत से ऋषि-मुनियों और देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई है.

महाकवि कालिदास में ‘रघुवंश’ में प्रयाग का नाम तो नहीं लिया, पर गंगा और जमुना के मिलने का बड़ा प्यारा बखान किया है. राम सीताजी से कहते है,“देखो, यमुना की सांवली लहरों से मिली हुई उजली लहरोंवाली गंगाजी कैसी सुन्दर लग रही हैं. जो गंगा-जमुना के संगम में नहाते हैं ये ज्ञानी न हों तो भी संसार से पार हो जाते हैं.

प्रयागराज का इतिहास- Prayagraj history

रामायण के बाद प्रयाग के बारे में इतिहास में कोई खास बात नहीं आती. बुद्ध ने यहां कुछ दिन ठहरकर लोगों को उपदेश दिया. प्रयाग से कुछ मील दूर पर एक जगह है कोसम.

वहां एक बहुत पुराने नगर कौशाम्बी के खण्डर खोदकर निकाले गए है. किसी जमाने में यह नगर बहुत प्रसिद्ध था. यहां के राजा उद्दयन और उनकी रानी बाह्यवद्धता की कहानी बड़ी मनोरंजक है. कहा जाता है कि वहां गौतमबुद्ध दो बरस तक रहे हैं.

बौद्धधर्म का वहां एक बड़ा विहार था. चंदन की बनी बुद्ध की एक विशाल मूर्ति भी यहां थी, जिसे राज उदयन ने बनवाया था. एक कुंए और स्नानघर का भी पता चला है. बुद्ध भगवान वहां स्नान किया करते थे. 

महाराज हर्ष के समय में आने वाले चीनी यात्री ह्नेनसांग के समय तक इस कुंए में जल भरा रहता था. वहां के एक स्तूप में महात्मा बुद्ध के केश और नाखून पड़े हुए थे. सम्राट अशोक राजा होने से पहले कौशाम्बी मे रहा था.

सम्राट होने पर उसने वहां एक लाट बनवाई. इस लाट पर उसने अपनी प्रजा के लिए अच्छी-अच्छी बाते खुदवाई. इलाहाबाद के किले में अशोक की जो लाट है वह कौशाम्बी से ही आई थी.

प्रयागराज का कुंभ मेला- Prayagraj Kumbh Mela

प्रयाग में हर साल माघ के महीने में संगम पर मेला लगता है. बारहवें साल कुंभ के अवसर पर तो तीस-पैंतीस लाख यात्री इकट्ठे हो जाते हैं. हर छठे साल अर्ध-कुंभी का मेला लगता है. इस मौके पर भी काफी भीड़ इकट्ठी हो जाती है. प्रयाग के ये मेले बड़े पुराने हैं. 

कुंभ के बारे में एक कथा है. कहते है, जब देवताओं और राक्षसों में अमृत के लिए झगड़ा हुआ और समुद्र मथा गया तो अमृत का घड़ा लिये धनवन्तरि समुद्र से निकले.

उन्होंने यह घड़ा देवताओं को दे दिया. देवता उसे किसी साफ जगह में रखकर पान करना चाह रहे थे कि इसी बीच दैत्य उसको उठा ले जाने को तैयार हुए. देव चाहते थे कि अमृत पीकर वे अमर हो जाये. दैत्य चाहते थे कि वे पीये. दैत्य ज्यादा ताकतवाले थे.

उधर भगवान ने सोचा कि अगर दैत्योें ने अमृत पी लिया तो बड़ा बुरा होगा तो वह मोहनी का रूप धरकर वहां पहुंचे और देवों और दैत्यों को अपने रूप से चकित कर उनका लड़ना-झगड़ना बंद कर दिया.

यही नहीं, उन्होंने दोनों के बीच समझौता कराने की भी जिम्मेदारी भी ली. मोहनी के रूप के बस में हो कर दैत्यों ने उनकी शर्त मान ली. मोहनी ने अमृत का घड़ा इन्द्र के बेटे जयंत को सौंपा और उसकी रखवाली का काम सूर्य, चंद्र, गृहस्वामी और शनि के हाथ में दिया.

चंद्रमा को जिम्मेदारी दी कि अमृत गिरने न पाये, बृहस्पति को देखना था कि कहीं राक्षस उसे न उड़ा लें, अकेले देवता उसे न हड़प लें, यह जिम्मेदारी रही शनि की. रहें सूर्य, उनका काम यह देखना था कि घड़ा फूटने न पावे.

इसी समय देवताओं के इशारे से जयंत अमृत का घड़ा लेकर भागा. राक्षसों ने उसका पीछा किया. भागते समय जयंत को चार जगह घड़ा रखना पड़ा. उसे रखते तथा उठाते समय इन चारों जगहों पर अमृत की बूंदें गिरी. इसी से वहां कुंभ-पर्व मनाया गया और आज भी मनाया जाता है. ये चार जगहें है- प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन.

कुंभ के मेले में देश के कोने-कोने से आदमी आते हैं. साधु-संन्यासियों का भी बड़ा जमघट रहता है. उनके अखाड़े बड़ी धूम-धाम और गाजे-बाजे के साथ निकलते है. एक पुरानी कहावत है-“तीर्थ गए मुड़ाए सिद्ध” प्रयाग में जितने यात्री आते है, उनमें से बहुत से अपने सिर के बाल मुड़ा आते है.

सधवा स्त्रियां अपना पूरा मुंडन नहीं कराती. वे अपने थोड़े से बाल कैंची से कटवाकर त्रिवेणी में बहा देती हैं. त्रिवेणी पर लोग तरह-तरह के दान करते हैं इनमें से एक दान है वेणीदान.

इस दान को देनेवाले लोग अपनी स्त्री को दान कर देते हैं. बाद में कुछ धन देकर उसे ले लेते हैं. दक्षिण भारत से आये हुए यात्री इस तरह का दान बहुत करते हैं.

प्रयागराज ह्नेनसांग और हर्षवर्धन का सम्बन्ध

आज से कोई साढ़े बारह सौ साल पहले हर्षवर्धन नाम का एक बड़ा राजा राज्य करता था. उसकी राजधानी कन्नौज में थी. उसके समय में चीन से ह्नेनसांग नामक यात्री भारत में आया था.

इस यात्री को हर्ष ने बड़े आदर के साथ अपनी राजधानी में बुलाया था. हर्ष हर पांच साल प्रयाग में त्रिवेणी के संगम पर ‘महामोक्ष परिषद्’ के नाम से एक सभा किया करता था.

जब ह्नेनसांग भारत में था तो इस तरह की छठवीं सभा हुई. इस सभा में ह्नेनसांग भी शामिल हुआ था. ह्नेनसांग ने इस सभा का हाल विस्तार से लिखा है. उससे पता चलता है कि इस सभा में शामिल होने के लिए भारत के अनेक राजा इकट्ठे हुए थे.

महाराज हर्ष ने त्रिवेणी पर अपने खजाने का सारा धन पुजारियों, विधवाओं, अनाथों और दीन-दुखियों को दान कर दिया. जब कुछ न रह गया तो उसने अपना रत्नों से जड़ा हुआ राजमुकुट और मोतियों का हार भी उतारकर दे दिया, यहां तक पहनने के कीमती कपड़े भी दान कर डाले. ऐसा महादान महाराज हर्ष बड़ी खुशी से हर पांचवे साल प्रयाग में किया करते थे. 

इलाहाबाद का प्रतिष्ठानपुर थी प्रमुख राजवंशों की राजधानी

गंगा के उस पार झूसी हैं, जो पुराने जमाने में प्रतिष्ठानपुर के रूप में अपनी निराली शान रखती थी. आज भले ही उसकी यह प्रतिष्ठा न हो, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि एक समय उसकी यश-पताका सारे देश में फैली थी.

चन्द्रवंश के प्रतापी नरेश पुरुरवा और नहुप, ययाति और पुरु, दुष्यंत और भरत सभी में इसी प्रतिष्ठानुसार को अपनी राजधानी बनाया था और यहीं से अपना राज-काज चलाया था. 

पांडवों के लिए इलाहाबाद में ही बनाया गया था लाक्षागृह

प्रयाग से चौबीस मील पर हंडिया नामक स्टेशन से तीन मील दक्खिन की ओर एक और पुरानी जगह है. यहां गंगा के किनारे कोई तीस बीघे का एक बड़ा टीला है, जिसे लाक्षागिरि कहते हैं.

इस समय लाक्षागिरि एक मामूली-सा गांव है. सोमवती अमावस्या के दिन वहां गंगा-स्नान का बड़ा मेला लगता है. इस स्थान का वर्णन महाभारत में आया है. पांडवों का नाश करने के लिए दुर्योधन ने अपने मंत्री पुरोधन के द्वारा एक जाल फैलाया. 

उसने सारे हस्तिनापुर में घोषणा करा दी कि ‘वारणावत’ नगर में एक बड़ा मेला होेने वाला है. इस मेले में जाने के लिए उसने पांडवों और उनकी माता कुंती को भी किसी तरह तैयार करा लिया.

अब दुर्योधन ने अपने मंत्री पुरोचन को समझाकर कहा कि पांड़वों के वहां पहुंचने के पहले ही तुम वहां पहुंच जाओ और लाख का घर बनवाओं. पांडवों को होशियारी से उसी घर में ठहराना और मौका मिलने पर जब वे सोते हों तो उसमें आग लगवा देना, जिससे वे जलकर भस्म हो जायं. विदुर को उसका पता चल गया.

उन्होंने पांडवों को उसका भेद बता दिया. वारणावत यही जगह थी, जो इस घटना के कारण बाद में लाक्षागृह के नाम से प्रसिद्ध हुई. 

प्रयाग का नाम कैसे पड़ा इलाहाबाद?

प्रयाग का नाम इलाहाबाद होना भी एक ऐतिहासिक तथ्य है. इसका यह नाम अकबर बादशाह के जमाने में पड़ा. उसने पहले इसका नाम अल्लाहाबाद रखा था, जो बाद में धीरे-धीरे इलाहाबाद हो गया.

अकबर बादशाह अपने एक विद्रोही सरदार को दबाने के लिए प्रयाग के पास एक जगह आया. लौटते समय वह प्रयाग भी पहुंचा. गंगा और जमुना के बीच की जगह को देखकर उसका मन हुआ कि यहां अपने रहने के लिए एक किला बनवाए. यही उसने किया. 

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