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प्रयागराज इलाहाबाद के दर्शनीय स्थल
इलाहाबाद के पर्यटन स्थलों का महत्व ऐतिहासिक और धार्मिक दोनों है. प्रयागराज की वजह से यह हिंदुओं का प्राचीन तीर्थ स्थल है और यहां बड़ी संख्या में हिंदुओं के तीर्थ स्थान और मंदिर स्थित है.
मुगल काल का प्रमुख शहर होने के कारण यहां मध्यकालीन इमारते भी बहुतायत में है. इस वजह से इलाहाबाद जहां इतिहासप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करता हैं, वहीं प्रयागराज धार्मिक यात्रियों को अपनी ओर खींचता है.
इलाहाबाद के प्रमुख पर्यटन स्थल- Tourist Places of Allahabad
इलाहाबाद का किला – इलाहाबाद किला हिस्ट्री इन हिंदी
इलाहाबाद का किला किसने बनवाया था, अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है. अकबर ने इलाहाबाद का किला बनवाया. यह किला गंगा-जमुना के बीच की भूमि पर लाल पत्थर का बना हुआ है.
एक दीवार जमुना के किनारे है और दूसरी गंगा के सामने. इस तरह किले की रक्षा करने का काम दोनों नदियां करती है. किले के चार हिस्से थे. पहला, बादशाह के रहने के लिए था, जिसमें 12 बगीचे थे. दूसरा बेगमों और शाहजादों के लिए था.
इस किले में एक ऊंची जगह पर बादशाह का झरोखा था, जहां से वह हाथियों और जंगली जानवरों की लड़ाइयां देखा करता था. यमुना की ओर के महलों में कई बड़े-बड़े दीवान खाने थे, जिनमें बैठकर बादशाह अपनी बेगमों के साथ गंगा और जमुना के नजारे देखा करता था.
यह किला अपने ढंग का बेजोड़ था. बाद में अंग्रेजी राज्य के दिनों में इसमें कुछ हेर-फेर हो गया. अंग्रेजी राज्य के जमाने में किले में लड़ाई का सामान रखा जाने लगा.
इलाहाबाद का खुसरो बाग-Khusro Bagh
संगम तीर्थ और इलाहाबाद के किले के अलावा भी प्रयागराज में कई दर्शनीय स्थल और ऐतिहासिक मंदिर हैं. प्रयागराज में घूमने लायक अच्छी जगह खुसरो बाग है. यह बाग चौकोर है. उसके चारों तरफ ऊंची-ऊंची पत्थर की दीवारें है.
उत्तर और दक्षिण की ओर को दो बड़े फाटक है. बाग के बीच में थोड़े-थोड़े फासले पर चार बड़ी इमारते हैं. पूरब की तरफ के भवन में शाहजादा खुसरो की कब्र है. खुसरो जहांगीर का बेटा था. बुरहानपुर में उसका कत्ल करा दिया गया था.
बात यों हुई कि खुसरो अपने पिता जहांगीर से बागी होकर आगरे से लाहौर चला गया था. वहां जाकर उसने अपने पिता से लड़ाई ठान ली. पर जहांगीर की सेना के मुकाबले उसकी हार हुई और वह पकड़ा गया.
बागी होने के कसूर में उसकी आंखों की पलको को सिलवा दिया गया. बाद में जहांगीर को इस बात का बड़ा पछतावा हुआ. खुसरो अपने दूसरे भाई खुर्रम की निगरानी में बुरहानपुर के किले में कैद था. यही खुर्रम शाहजहां के नाम से जहांगीर के बाद बादशाह हुआ.
जब खुर्रम ने देखा कि जहांगीर को खुसरो पर दया आने लगी तो उसको डर होने लगा कि कहीं जहांगीर अपने मरने के बाद खुसरो को ही बादशह न बना डाले. इसलिए उसने खुसरो की हत्या करवा दी और जहांगीर के पास खबर भिजवा दी कि पेट के दर्द से वह मर गया.
खुसरो की लाश पहले बुरहानपुर में दफनाई गई फिर जहांगीर के हुक्म से आगरे लाई गई. वहां लोग उसकी कब्र को पूजने लगे. यह बात नूरजंहा को सहन न हुई.
सौतेली मां होने के कारण वह खुसरो को फुटी आंख भी नहीं देख सकती थी. सो उसने जहांगीर से कह-सुनकर खुसरों की लाश को आगरे से फिर खुदवाकर इलाहाबाद भिजवा दिया. यहां वह इसी बाग में दफन किया गया.
खुसरों की कब्र एक महराबदार छत के नीचे है. देखने में सुन्दर है. जिस भवन में खुसरों की कब्र है, उसके अन्दर फारसी में बारह शेर लिखे हुए है. खुसरों बाग में दो और कब्रें है. एक उसकी मां की और दूसरी उसकी बहन की.
अफीम खाने के कारण खुसरो की मां शाह बेगम की मौत हुई थी. बहन सुल्तानुन्निसा ने अपनी जिन्दगी में ही अपनी कब्र बनवाई थी. बाद में उसकी राय बदल गई. वह कब्र खाली पड़ी है.
सुल्तानुन्निसा मरने के बाद सिकंदरा में अकबर की कब्र के पास दफनाई गई. खुसरो बाग के पास ही खुल्दाबाद की सराय है. इसे बादशाह जहांगीर ने बनवाया था.
प्रयाग के दारागंज मुहल्ले का शाहजहां के सबसे बड़े बेटे दाराशिकोह ने बसाया था. उसी के नाम पर मुहल्ले का नाम दारागंज पड़ा.
अंग्रेजी राज में हुई इलाहाबाद की संधि
अंग्रेजी राज्य के शुरू के दिनों में दिल्ली के मुगल बादशाह शाह आलम और अंग्रेजों के बीच प्रयाग में एक बड़ी महत्वपूर्ण संधि हुई थी. अंग्रेजों की ओर से क्लाइव इस संधि की शर्तों को तय करने आया था.
इस संधि के अनुसार अंग्रेजों को शाह आलम ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के प्रांतो की मालगुजारी वसूल करने का हक दे दिया. इस तरह अंग्रेजी राज्य की नींव एक तरह प्रयाग में पड़ी.
प्रयागराज का नेहरू परिवार
पंड़ित जवाहरलाल और उनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरू देश को प्रयाग से ही मिले. कर्नलगंज में नेहरू परिवार का अपना मकान है. इसे ‘आनंद भवन’ कहते हैं.
आनंद-भवन को पंडित मोतीलाल ने बनवाया था. आनंद भवन के पास ही उनका बनवाया एक और विशाल भवन है जो उन्होंने बाद में कांग्रेस को दान कर दिया. तब से उस का नाम ‘स्वराज्य-भवन’ पड़ा.
इसमें बहुत दिनों तक कांग्रेस का दफ्तर रहा. इस भवन में पत्थर और धातु की अनेक मूर्तियां है. कौशाम्बी से मिली बहुत सी वस्तुएं भी यही रखी हैं. पुराने जमाने के सिक्के भी हैं.
यहां हाथ की लिखी हुई पुस्तकों और चित्रों का भी अच्छा संग्रह है. अजायबघर के एक कमरे का नाम है जवाहरलाल नेहरू भवन. इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू की चीजें रखी हुई हैं.
जैसे चरखे और खादी व रेशम आदि के कपड़े. पंडित जवाहरलाल नेहरू की दी हुई चीजों में एक चीज बड़ी अनमोल है, वह है उनके जीवन-चरित की उनके अपने हाथ की लिखी कापी. इसे उन्होंने जेल में लिखा था और लंदन से छपी थी.
प्रयागराज के मंदिर Famous Temples of Prayagraj
त्रिवेणी का संगम-Triveni Sangam
अगर संगम न होता तो इस जगह का तीन-चौथाई महत्व कम हो जाता. गंगा, जमुना और सरस्वती, ये तीन नदियां इस जगह पर मिलती है. इनमें से दो तो अब भी है.
तीसरी के बारें में लोगों की अलग-अलग मान्यताएं हैं. हो सकता है, सरस्वती नाम की कोई तीसरी धारा भी कभी बहती हो, लेकिन अब वह दिखाई नहीं देती. कहा जाता है कि यहां पहले जमुना ही बहती थी. गंगा तो बाद में आई गंगा के आने पर जमुना अर्ध्य लेकर आगे आई, लेकिन गंगा ने उसे स्वीकार न किया।
जमुना ने पूछा,“क्यों बहन, स्वीकार क्यों नहीं करती?” गंगा ने उत्तर दिया, “इसलिए कि तुम मुझ से बड़ी हो. मैं तुम्हारा अर्ध्य ले लूंगी तो आगे मेरा नाम ही मिट जाएगा। मैं तुममें समा जाऊंगी. यह सुनकर जमुना बोली, “बहन, तुम इसकी चिंता न करो.
तुम मेरे घर मेहमान बनकर आई हो. मेरा यह अर्ध्य स्वीकार कर लो. मैं ही तुममें लीन हो जाऊंगी. चार सौ कोस तक तुम्हारा ही नाम चलेगा. फिर मैं तुमसे अलग हो जाऊंगी.” गंगा ने यह बात मान ली.
इस तरह गंगा और जमुना एक-दूसरे से गले मिले. गंगा और यमुना के बारे में और भी कई कथाएं कही जाती हैं. संगम पर लोग नाव में बैठकर गंगा-यमुना की धाराओं के मिलन को देखते है. गंगा का जल सफेद, जमुना का नीला. दोनो रंग अलग-अलग दिखाई देते हैं.
संगम से आगे गंगा का जल भी कुछ नीला हो जाता है. कहते है, संगमसे आगे नाम गंगा का रह जाता है और रंग यमुना का. हिमालय की पुत्री होने के कारण गंगा का जल शीतल है, सूर्य की कन्या माने जाने के कारण यमुना का गरम.
जाड़ो में स्नान करने पर इस बात की सच्चाई साफ मालूम हो जाती है. संगम पर रोज यात्रियों की भीड़ रहती है. एक छोटा-मोटा मेला तो यहां बारहों महीने लगा रहता है. पंडो की झोंपड़ियां बनी है, जिन पर अलग-अलग झंडे फहराते हैं.
प्रयागराज मे अस्थि विसर्जन
संगम पर बहुत-से लोग अपने मरे हुए संबंधियों की राख और अस्थियां बहाने आते हैं. महात्मा गांधी की अस्थियां भी इसी स्थान पर प्रवाहित की गई थी.
इस प्रकार आदिकाल से लेकर अबतक गंगा हमारे देश की न मालूम कितनी विभूतियों की राख और अस्थियों को बहाकर ले गई है और उन्हें सागर को अर्पण कर दिया है.
पातालपुरी या अक्षयपट का मंदिर
तीर्थराज होने के कारण प्रयाग में मंदिर भी बहुत-से है. पातालपुरी या अक्षयपट का मंदिर इनमें बहुत प्रसिद्ध है. यह मंदिर त्रिवेणी के पास ही बना है. किले के एक फाटक से होकर इसमें आने का रास्ता है.
इस मंदिर की छत खंभों पर टिकी है. मंदिर में घूमते समय ऐसा जान पड़ता हैं, मानो किसी तहखाने या सुरंग में घूम रहे हों. शायद इसीलिए इसे लोग ‘पातालपुरी का मंदिर’ कहते हैं. यहां अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां है.
धर्मराज, अन्नपूर्णा, विष्णु, लक्ष्मी, कुबेर, शंकर, सरस्वती आदि सब मिलाकर 46 मूर्तियां है. कुछ ऋषि-मुनियों की है, जिनमें दुर्वासा, मार्कंडेय और वेदव्यास हैं. इनमें से कुछ मूर्तियां तो बड़ी ही सुंदर हैं.
अक्षयवट
इन मंदिरो की सबसे मुख्य चीज अक्षयवट है. उतर की दीवार में एक बड़ा आला बना है. उसमें पुरानी लकड़ी का एक छोटा गोल टुकड़ा रखा हुआ है, जिस पर कुछ कपड़ा लिपटा रहता है. यही अक्षयवट बताया जाता है.
यात्री लोग इसका पूजन करते है और इस पर सूत लपेटते हैं. हिन्दुओं का विश्वास है कि अक्षयवट प्रलय में भी नष्ट नहीं होता. प्रलय के समय इसी अक्षयवट पर भगवान छोटे बच्चे का रूप धरकर अपने पैर के अंगूठे को मुंह में देकर क्रीड़ा करते हैं.
ह्नेनसांग नामक चीनी यात्री ने भी अक्षयवट के बारे में लिखा है. इससे पता चलता है कि इस समय यह वृक्ष मंदिर के आंगन में खड़ा था. उसकी पत्तियां और शाखाएं दूर-दूर तक फैली हुई थी.
उन दिनों लोगों का विश्वास था कि जो भी आदमी इस पेड़ से गिरकर जान देगा, वह सेवा के लिए स्वर्ग चला जायेगा.
हनुमान मंदिर
शंकर विमान मंडपम
शंक विमान मंडपम प्रयागराज के प्राचीन मंदिरों में से एक है. यहां कामाक्षी देवी, 51 शक्तिपीठ, शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट की मूर्तियां देखने को मिलती हैं.
यहां का सबसे बड़ा आकर्षण योगसहस्त्र या सहस्त्रयोगा लिंंगा की 108 मूर्तियां है, इन्हीं की वजह से इस मंदिर को अपना नाम मिला है. चार स्तम्भों पर टिका यह मंदिर 130 फुट ऊंचा है.
इलाहाबाद के ऐतिहासिक पार्क
मिण्टो पार्क
अल्फ्रेड पार्क
इलाहाबाद उच्च न्यायालय
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की स्थापना 1869 में हुई. दरसअल उत्तर प्रांत के लिए पहले उच्च न्यायालय की स्थापना 1866 में आगरा में की गई थी लेकिन 1869 में इसे इलाहाबाद ले आया गया. 11 मार्च 1919 को इसका नाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय हो गया. कुछ समय के लिए अंग्रेज उच्च न्यायालय को अवध ले गए लेकिन आजाद होने के बाद उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय को एक बार फिर से इलाहाबाद में स्थापित कर दिया गया. राम मंदिर जन्म भूमि विवाद की सुनवाई इलाहाबाद उच्च न्यायायल में हुई.