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हबीब जालिब की जीवनी और रचनायें
हबीब जालिब को ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को, मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता जैसी मकबूल नज्म के लिये जाना जाता है. हबीब को अपने क्रांतिकारी विचारों और रचनाओं के लिये जाना जाता है. उनकी गजलों और नज्मों में व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा है और युवा पीढ़ी उनके लिखे तरानों को पूरे जोश के साथ गाती है.
हबीब जालिब की जीवनी
हबीब जालिब का वास्तविक नाम हबीब अहमद था और जालिब के नाम से वे लिखा करते थे. जालिब एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है आकर्षक लेकिन साहित्यिक उपमाओं में मिशन और उद्देश्य के प्रति आकर्षित करने वाले को जालिब कहा जाता है. इसी वजह से हबीब ने अपना तखल्लुस ‘जालिब’ रखा.
हबीब अहमद का जन्म 24 मार्च, 1928 को पंजाब के होशियारपुर जिले में हुआ. यही पर इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. इन्होंने उर्दु पर विशेषज्ञता हासिल की और प्रूफरीडर का काम करने लगे. अखबारों में काम करने के दौरान अपने विचारोत्तेजक कविताओं की वजह से अपने साथियों में मशहूर हुये. आजादी के बाद इन्होंने बंटवारे के दौरान पाकिस्तान जाने का फैसला लिया.
हबीब जालिब के जीवन संघर्ष
पाकिस्तान आने के बाद हबीब ने कराची के एक अखबार डेली इमरोज में प्रूफरीडर का काम करना शुरू कर दिया. अपनी विरोध की रचनाओं की वजह से लोग उन्हें पसंद करने लगे और जल्दी ही वे पाकिस्तान के मशहूर शायरों में से एक हो गये. सादापन और अवाम की भाषा का इस्तेमाल कर लिखी गई उनकी गजलों और नज्मों को लोग न सिर्फ सुनते थे बल्कि उन्हें गाते भी थे.
हबीब की नज्मों और गजलों में सामाजिक और राजनीतिक कुरीतियों पर कुठाराघात होता था और सरकार के विरोध में उनके तराने सड़को पर गाये जाते थे. उनके नज्मों को नारों की तरह उछाला जाता था. धीरे-धीरे उनकी सरकार विरोधी छवि प्रबल हो गई और हबीब पाकिस्तान सरकार की नजरों में खटकने लगे.
habib jalib ki ghazal Dastur in hindi कैसे हुआ दस्तूर नज्म का जन्म
हबीब जालीब की सबसे मशहूर नज्म दस्तूर कैसे उपजी, इसकी भी एक रोचक दास्तान है. 1962 में जब जब यह नज्म लिखी गई तब पाकिस्तान पर जनरल अयुब खान ने सैनिक शासन लाद दिया था. पूरी दुनिया में इस कदम की आलोचना की जा रही थी.
अयुब खान ने अपने आप को पाकिस्तान का राष्ट्रपति और सर्वेसर्वा बनाये रखने के लिये एक नये संविधान का निर्माण करवाया. हबीब जालिब ने उस संविधान की वैद्यता पर सवाल उठाया और दस्तूर नाम की नज्म लिखी जो अयुब खान के विरोध की आवाज बन गई. हबीब को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
Aise Dastur ko Subh benoor ko in hindi – दस्तूर
दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
क्रांति और विरोध का शायर हबीब जालिब
हबीब जालिब हमेशा विरोध में ही रहे, उन्होंने पाकिस्तान के तानाशाहों को कभी स्वीकार नहीं किया. लोकतंत्र को लेकर वे हमेशा आस्थावान बने रहे लेकिन लोकतांत्रिक सरकारों ने भी जब कुछ गलत किया तब वे उनके भी विरोध में आये.
अपने इस क्रांति और विरोध की शायरी की वजह से हबीब को अपने जीवन का बड़ा वक्त जेल में ही गुजारना पड़ा. जिया उल हक ने तो उन्हें तब तक रिहा नहीं होने दिया जब तक वह शासन में रहा. जिया उल हक की मौत के बाद बनी बेनजीर भुट्टो सरकार ने उन्हें जेल से रिहा किया.
क्रांति का यह शायर ताउम्र व्यवस्था के अत्याचारों के विरोध में बोलता रहा. उनकी एक और नज्म जो उन्होंने तानाशाहो पर लिखी बहुत पसंद की गई और आज भी इस नज्म का तकरीरों में बहुत इस्तेमाल होता है.
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था
कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था
आज सोए हैं तह-ए-ख़ाक न जाने यहाँ कितने
कोई शोला कोई शबनम कोई महताब-जबीं था
अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक ज़माने में मिज़ाज उनका सर-ए-अर्श-ए-बरीं था
छोड़ना घर का हमें याद है ‘जालिब’ नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िन्दाँ तो नहीं था
habib jalib death cause- हबीब जालिब की मौत
आम आदमी की भाषा में लिखने वाले इस दुस्साहसी शायर ने 12 मार्च, 1993 को आखिरी सांसे ली. हबीब की मृत्यु के बाद पाकिस्तान ही नहीं भारत के लोगों ने भी शोक जताया और एक अजीम शायर को श्रद्धाजंली दी. उन्होंने भारत के लिये लिखा था कि –
habib jalib ki ghazal- हबीब जालिब की गजल
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
लेकिन इन दोनों मुल्कों में अमरीका का डेरा है
ऐड की गंदम खाकर हमने कितने धोके खाए हैं
पूछ न हमने अमरीका के कितने नाज़ उठाए हैं
फिर भी अब तक वादी-ए-गुल को संगीनों ने घेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
खान बहादुर छोड़ना होगा अब तो साथ अँग्रेज़ों का
ता बह गरेबाँ आ पहुँचा है फिर से हाथ अंग्रेज़ों का
मैकमिलन तेरा न हुआ तो कैनेडी कब तेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
ये धरती है असल में प्यारे, मज़दूरों-दहक़ानों की
इस धरती पर चल न सकेगी मरज़ी चंद घरानों की
ज़ुल्म की रात रहेगी कब तक अब नज़दीक सवेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है.
habib jalib family हबीब जालिब का परिवार
हबीब जालिब अपने संघर्ष के कारण अपने परिवार पर विशेष ध्यान नहीं दे पाये. वे अपनी पत्नी और बेटियों के लिये कुछ खास छोड़कर नहीं गये.
खबरों के अनुसार उनकी बेटी ताहिरा हबीब जालिब tahira habib jalib अपने जीवनयापन के लिये लाहौर में टैक्सी चलाती हैं. उनकी पत्नी को दिया जाने वाला भत्ता पाकिस्तान की पंजाब सरकार ने बंद कर दिया. 2014 में हबीब जालिब की पत्नी का भी इंतकाल हो गया.
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