बहादुर शाह जफर की जीवनी और रचनायें
बहादुर शाह जफर अंतिम मुगल बादशाह होने के साथ भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बहादुर सेनानी भी थे. एक अजीम शायर के तौर पर भी उनकी पहचान है. उनका जीवन मुश्किलों और तकलीफों में ही बीता. उनका आखिरी समय रंगून के जेल में बीता.
बहादुर शाह जफर का जन्म
बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को दिल्ली के लाल किले में हुआ. उनकी माता का नाम लाल बाई था. मुगल खानदान के वंशज होने के नाते उनकी परवरिश किसी शहजादे की तरह ही हुई. अरबी और फारसी साहित्य से बहादुर शाह को विशेष लगाव था. वे जफर उपनाम से शेर और गजल लिखा करते थे.
बहादुर शाह का आरंभिक जीवन
अपने पिता की मृत्यु के बाद वे गद्दी पर बैठे. तब तक पूरे देश में अंग्रेजों का राज स्थापित हो चुका था और मुगल सल्तनत सिर्फ दिखावा मात्र रह गई थी. दिल्ली के एक बहुत छोटे से हिस्से में मुगलिया सल्तनत सिमट कर रह गई थी.
बहादुर शाह की शुरू से ही अंग्रेजों से नहीं बनी और अंग्रेजों ने भी समय-समय पर भारत के सम्राट को यथोचित सम्मान नहीं दिया. बहादुर शाह जफर इस अपमान से आक्रोशित थे और उन्होंने अंग्रेजों को अपना शत्रु मान लिया.
अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर के पुत्र जवांबख्त को अपनी ओर मिला लिया और अपने पिता के खिलाफ विद्रोह करने पर राजी कर लिया. अंग्रेजों ने बहादुर शाह के बेटे से एक पत्र लिखवा लिया कि अगर वह बहादुर शाह के बाद बादशाह बनता है तो लाल किले पर अपना हक छोड़ देगा.
अंग्रेजों के बादशाहत खत्म करने का प्रयास
बहादुरशाह जफर को अंग्रेज भारत का आखिरी मुगल बादशाह मान चुके थे. सबसे पहले उन्होंने बादशाह को नजराना देना बंद कर दिया. इसके बाद उन्होंने बादशाह के नाम पर ढाले जाने वाले सिक्को को बंद किया.
गर्वनर जनरल की मोहर में बादशाह का विवरण हटा दिया गया. अंग्रेजों ने भारत से मुगल बादशाहत खत्म करने की पूरी तैयारी कर ली. उन्होंने बादशाह से सभी संबोधन वापस ले लिए और दूसरे लोगों पर भी राजसी संबोधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया.
1857 की क्रांति और बहादुर शाह जफर
उस वक्त तक भी भारत मे मुगल बादशाह को बहुत इज्जत की नजर से देखा जाता था. भारत में उन्हें अब भी अधिकारिक तौर पर सबसे ऊंचे ओहदे पर रखा जाता था. अंग्रेजों का यह व्यवहार भारत के लोगों को पसंद नही आ रहा था.
इसी बीच भारत में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत हो गई. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे, कुंवर सिंह, नाना साहब पेशवा, हरियाणा और राजस्थान के शासको ने अंग्रेजो के खिलाफ बिगुल फूंक दिया.
बहादुशाह जफर ने इस क्रांति का नेता होना स्वीकार किया. उन्होंने कमान संभाली और अंग्रेजो से लड़ने के लिए 31 मई, 1857 का दिन निश्चित किया गया. लोगों से संपर्क करने के लिए कमल का फूल और रोटी जैसे प्रतीको का उपयोग किया गया. हरा और सुनहरा झंडा क्रांति का झंडा बन गया.
इसी बीच मंगल पांडे ने समय से पहले ही बगावत कर दी. सारे देश के सैनिक छावनियों में बगावत शुरू हो गई. मेरठ ओर दिल्ली सभी जगह अंग्रेजों की हत्या की जाने लगी. 10 मई को क्रांतिकारियों की फौज दिल्ली पहुंच गई. बहादुरशाह जफर को विधिवत भारत का सम्राट घोषित किया गया.
बहादुर शाह ने सम्राट बनते ही अपने बेटे मिर्जा मुगल को हटाकर दूसरे लायक बेटे बख्त खां को अपना सेनापति बनाया. बहादुर शाह ने बहुत सूझ-बूझ के साथ क्रांति का संचालन किया लेकिन उनके साथ मीर जाफर ने धोखा किया. मीर जाफर की गद्दारी की वजह से दिल्ली एक बार फिर से अंग्रेजों के हाथ में चली गई.
बहादुर शाह जफर को कैद कर लिया गया और उन्हें रंगून भेज दिया गया. रंगून में उन पर बहुत अत्याचार हुए और उन्हें भूखा-प्यासा तक रखा गया. 7 नवम्बर 1862 को उनकी रंगून में ही मुत्यु हो गई। उनका ही एक शेर है-
देखो इन्साँ खाक का पुतला बना क्या चीज है
बोलता है इस में क्या वो बोलता क्या चीज है.
बहादुर शाह जफर की गजलें और शेर
देखो इन्साँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है
बोलता है इस में क्या वो बोलता क्या चीज़ है.
रू-ब-रू उस जु़ल्फ़ के दाम-ए-बला क्या चीज़ है
उस निगह के सामने तीर-ए-क़ज़ा क्या चीज़ है.
यूँ तो हैं सारे बुताँ ग़ारत-गर-ए-ईमाँ-ओ-दीं
एक वो काफ़िर सनम नाम-ए-ख़ुदा क्या चीज़ है.
जिस ने दिल मेरा दिया दाम-ए-मुहब्बत में फंसा
वो नहीं मालूम मुज को नासेहा क्या चीज़ है.
होवे इक क़तरा जो ज़हराब-ए-मुहब्बत का नसीब
ख़िज़्र फिर तो चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा क्या चीज़ है.
मर्ग ही सेहत है उस की मर्ग ही उस का इलाज
इश्क़ का बीमार क्या जाने दवा क्या चीज़ है.
दिल मेरा बैठा है ले कर फिर मुझी से वो निगार
पूछता है हाथ में मेरे बता क्या चीज़ है.
ख़ाक से पैदा हुए हैं देख रंगा-रंग गुल
है तो ये ना-चीज़ लेकिन इस में क्या क्या चीज़ है.
जिस की तुझ को जुस्तुजू है वो तुझी में है ‘ज़फ़र’
ढूँढता फिर फिर के तो फिर जा-ब-जा क्या चीज़ है.
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पसे-मर्ग मेरी मजार पर जो दिया किसी ने जला दिया ।
उसे आह! दामन-ए-बाद ने सरेशाम ही से बुझा दिया ।।
मुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी, तो ये उससे कहना कि ऐ परी,
वो जो तेरा आशिक़-ए-जार था, तह-ए-ख़ाक उसको दबा दिया ।
दम-ए-ग़ुस्ल से मेरे पेशतर उसे हमदमों ने ये सोचकर,
कहीं जावे उसका दिल दहल, मेरी लाश पर से हटा दिया ।
मेरी आँख झपकी थी एक पल, मेरे दिल ने चाहा कि उसके चल,
दिल-ए-बेक़रार ने ओ मियाँ! वहीं चुटकी लेके जगा दिया ।
मैंने दिल दिया, मैंने जान दी, मगर आह तूने न क़द्र की,
किसी बात को जो कभी कहा, उसे चुटकियों से उड़ा दिया ।
***
कीजे न दस में बैठ कर आपस की बातचीत
पहुँचेगी दस हज़ार जगह दस की बातचीत
कब तक रहें ख़मोश के ज़ाहिर से आप की
हम ने बहुत सुनी कस-ओ-नाकस की बातचीत
मुद्दत के बाद हज़रत-ए-नासेह करम किया
फ़र्माइये मिज़ाज-ए-मुक़द्दस की बातचीत
पर तर्क-ए-इश्क़ के लिये इज़हार कुछ न हो
मैं क्या करूँ नहीं ये मेरे बस की बातचीत
क्या याद आ गया है “ज़फ़र” पंजा-ए-निगार
कुछ हो रही है बन्द-ओ-मुख़म्मस की बातचीत
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लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
कितना है बदनसीब “ज़फ़र” दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
***
हमने दुनिया में आके क्या देखा
देखा जो कुछ सो ख़्वाब-सा देखा
है तो इन्सान ख़ाक का पुतला
लेक पानी का बुल-बुला देखा
ख़ूब देखा जहाँ के ख़ूबाँ को
एक तुझ सा न दूसरा देखा
एक दम पर हवा न बाँध हबाब
दम को दम भर में याँ हवा देखा
न हुये तेरी ख़ाक-ए-पा हम ने
ख़ाक में आप को मिला देखा
अब न दीजे “ज़फ़र” किसी को दिल
कि जिसे देखा बेवफ़ा देखा
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