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surya saptami vrat katha aur pooja vidhi- सूर्य सप्तमी व्रत

surya saptami vrat katha aur pooja vidhi- सूर्य सप्तमी व्रत

वैवस्वत सूर्य सप्तमी व्रत – सूर्य की उपासना का व्रत

सूर्य की हिन्दु धर्म में बहुत महिमा मानी गई है. सूर्य को प्रत्यक्ष देव की श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि यह साक्षात प्रकट होते हैं और अपनी ऊर्जा से जीवन के प्रवाह को गतिमान करते हैं. भारतीय संस्कृति में सदैव ही सूर्य की उपासना की परम्परा रही है. सूर्यवंश प्रमुख भारतीय राजवंशों में से एक रहा है.

भगवान राम का कुल भी सूर्यवंशी ही माना जाता है. स्वयं भगवान राम सूर्य की अराधना किया करते थे. ऐसे महान देव सूर्य की उपासना करने का पावन पर्व है, वैवस्वत सूर्य सप्तमी व्रत.

भगवान सूर्य का एक नाम वैवस्वत भी माना गया है. सप्तमी को सूर्य की तिथि माना जाता है. यही वजह है कि सप्ताह के सातवें दिन रविवार को सूर्य के लिये नामित किया गया है. वैवस्वत सप्तमी को सूर्य की उपासना करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं और संकटो का नाश होता है. सूर्य की उपासना तो जल के अर्ध्य से प्रतिदिन की जाती है लेकिन वैवस्वत सूर्य सप्तमी के दिन इसका विशेष महत्व है.

सूर्य के बीज मंत्र से करें उपासना?

सूर्य उन देवताओं की श्रेणी में है जिनका बीज मंत्र सिद्ध किया जाता है. भगवान सूर्य का बीज मंत्र सुखों को देने वाला और दुख का नाशक माना जाता है. सूर्य देव का बीज मंत्र है.

ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः।

इस मंत्र को अत्यन्त चमत्कारी माना गया है. वैवस्वत सूर्य सप्तमी को अगर इस मंत्र का जाप किया जाये तो भगवान सूर्य को प्रसन्न किया जा सकता है.

कैसे करें वैवस्वत सूर्य सप्तमी को सूर्य की पूजा?

वैवस्वत सूर्य सप्तमी को सूर्य की अराधना के लिए शौच स्नानादि से निवृत होकर, शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिये. वस्त्रों का रंग पीला हो तो श्रेष्ठ रहेगा अन्यथा श्वेत वस्त्र भी धारण किये जा सकते हैं. सर्वप्रथम सूर्य को अध्र्य देना चाहिये.

अर्ध्य के जल में लाल मिर्च के छह बीज डाल लेने चाहिये. अर्ध्य के बाद सूर्य के बीज मंत्र का जाप करना चाहिये. जाप शुरू करने से पहले तांबे के बर्तन में शुद्ध जल, लाल चंदन, लाल फूल, गंगाजल और गुड़ डालकर आम के पल्लव से ढक देना चाहिये. इसके बाद सूर्य के बीज मंत्र का जाप 11 माला करना चाहिये.

वैवस्वत सूर्य सप्तमी व्रत कथा

वैवस्वत सप्तमी सूर्य कथा का विवरण मत्स्य पुराण में मिलता है. इस कथा के अनुसार प्राचीन आर्याव्रत में सत्यव्रत नाम का एक राजा राज्य करता था. एक दिन सत्यव्रत कृतमाला नाम की नदी जल का तर्पण कर रहे थे तभी उनके हाथ में एक छोटी सी मछली आ गई. राजा ने उस मछली को वापस नदी में छोड़ा तो मछली ने कहा कि वह बड़े जीवों के डर से उनकी शरण में आई है तो उसकी रक्षा करना राजा का धर्म है.

राजा ने मछली की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसे अपने कमंडल में डालकर राज महल ले आये. रात भर में मछली इतनी बड़ी हो गई कि उसे एक बड़े मटके में डालना पड़ा. वह इतनी तेजी से बड़ी होने लगी कि जल्दी ही वह मटका भी छोटा पड़ गया. इसके बाद उस मत्स्य को तालाब में डाला गया.

वहां भी मछली का आकार बहुत बड़ा हो गया. राजा को यह समझ में आ गया कि यह कोई साधारण मछली नहीं है. उसने मत्स्य को प्रणाम किया और उनसे साक्षात स्वरूप दिखाने को कहा. मत्स्य तत्काल भगवान विष्णु में परिणित हो गये. भगवान विष्णु ने कहा कि वे राजा को प्रलय के पश्चात नये संसार के आविर्भाव का माध्यम बनाने आये हैं.

भगवान विष्णु ने उन्हें आदेश दिया कि वे एक बहुत बड़ी नाव का निर्माण करें और उसमें सारे प्रजातियों के जीव और बीज लेकर सवार हो जाये. तीन दिवस बार जल प्रलय होगी. जब उनकी नाव डोलेगी तो वे स्वयं मत्स्य के रूप में प्रकट होंगे.

मत्स्य के सींग पर वासुकी नाग की डोरी से रस्सी बनायी जायेगी और वे नाव को ब्रह्मा की रात समाप्त होने तक खेते रहेंगे. राजा सत्यव्रत ने आदेशों का पालन किया और जल प्रलय के बाद नये विश्व की रचना में अपना योगदान दिया. इन्हीं राजा को विवस्वान या वैवस्वत या वैवस्वत मनु कहा जाता है.

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