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Tulsidas biography- गोस्वामी तुलसीदास जी की जीवनी
गोस्वामी तुलसीदास का भारत भूमि का अविर्भाव भारत भूमि पर तब हुआ जब हिंदु धर्म का ह्वास हो रहा था. उन्होंने ही हिन्दुओं के भग्न होते धार्मिक वैभव को संभाला और दुष्ट दलनकारी भगवान राम के जीवन चरित को अवधी में जन-जन के मुख पर ला दिया. उनकी रचित रामचरित मानस ने भारतीय जनमानस को गहरे तक प्रभावित किया.
गोस्वामी तुलसीदास का आरंभिक जीवन
when tulsidas was born- गोस्वामी तुलसीदास ने वर्ष 1511 यानि संवत् 1554 में श्रावण शुक्ल सप्तमी को बांदा जिले के राजापुर नाम के गांव में जन्म लिया। इसके सम्बन्ध में एक दोहा भी मिलता है.
पन्द्रह सौ चैवन विषै कालिंदी के तीर।
श्रावण शुक्त सप्तमी तुलसी धरयौ शरीर।।
गोस्वामी तुलसीदास जी के पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था. वे सरयूपारी ब्राह्मण थे. अयोध्या जिस सरयू नदी के तट पर बसा हुआ है, उसी के किनारे रहने वाले ब्राह्मणों को सरयूपारी ब्राह्मण कहा जाता है. कहा जाता है कि तुलसीदास ने जन्म लेते ही राम का नाम लिया था इसलिए इनके माता-पिता ने इनका नाम ही रामबोला रख दिया.
माना तो यह भी जाता है कि जन्म के समय से ही गोस्वामी तुलसीदास जी के मुख में पूरे 32 दांत थे. तुलसीदास जी का जन्म मूल नक्षत्र में जन्म लेने और इन विविधताओं की वजह से पिता ने इन्हें कोई अपवित्र आत्मा समझ इनकी उपेक्षा कर दी. उनकी माता ने मुनिया नाम की दासी को तुलसीदास के पालन-पोषण का भार सौंप दिया क्योंकि पिता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था.
तुलसीदास जी के जन्म के 5 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया. 5 साल बाद दासी मुनिया भी इस दुनिया को छोड़ कर चली गई. पिता के त्याग दिए जाने के कारण बालक तुलसीदास घर-घर मारा-मारा फिरने लगा.
राम बोला से तुलसीदास बनने की कहानी
तुलसीदास जी को जब किसी ने स्वीकार नहीं किया तो वे भटकते हुए अनन्तर बाबार नरहरिदास के पास पहुंच गए. बाबा ने इस विलक्षण बालक की प्रतिभा को पहचान लिया और आश्रम में उसे शरण दिया.
उन्होंने ही बालक रामबोला को तुलसीदास का नाम दिया. उन्होंने ही तुलसीदास को शिक्षित किया. बाबा नरहरिदास ही बालक तुलसीदास को रामकथा सुनाया करते थे.
एक वर्ष बालक तुलसीदास अपने पालक अनन्तर नरहरिदास के साथ काशी गए और स्वामी रामानंद जी के निवास स्थान पंचगंगा घाट पर रहने लग गए. वहीं पास में एक और महात्मा शेष सनातन जी रहते थे जिन्होंने तुलसीदास जी को वेद, पुराण, दर्शन शास्त्र और इतिहास की शिक्षा दी.
तुलसीदास का वैवाहिक जीवन
तुलसीदास जी कुछ समय पश्चात वहां से चित्रकूट चले गए और विद्याध्यन करने लग गए. सनातन शेष जी की मृत्यु के 15 साल बाद वे अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट कर आए.
यहां आकर वे लोगों को राम कथा सुनाने लगे. उनकी कथा की ख्याती तेजी से फैलने लगी. यमुना पार के एक ब्राह्मण ने जब उनकी ख्याती सुनी तो उन्होंने अपनी tulsidas wife name in hindi – पुत्री रत्नावली का ब्याह तुलसीदास जी से कर दिया.
तुलसीदास जी अपनी पत्नी से अगाध प्रेम करते थे. एक बार रत्नावली को आवश्यक कार्य से अपने पिता के घर जाना पड़ा. तुलसीदास अपनी पत्नी का वियोग न सह सके और आधी रात को अपनी पत्नी से मिलने अपने ससुराल जा पहुंचे.
उनके इस कृत्य से उनकी पत्नी बहुत नाराज हो गई और उनसे बोली कि चमड़े की इस देह से प्रेम करने से कोई लाभ नहीं है, आप तो दुनिया के अराध्य राम से प्रेम करें, वही आपकी नैया पार लगाएंगे.
अपनी पत्नी के इन वचनों को सुनकर तुलसी दास जी का मोह भंग हो गया और काशी पहुंच कर वे तुरंत सन्यासी हो गए.
तुलसीदास जी और रामचरित मानस
तुलसीदास ने सन्यास ग्रहण करने के बाद तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया और इसी क्रम में वे जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, द्वारका और बदरिकाश्रम गए. वहां से कैलाश और मानसरोवर तक की यात्रा की.
वे लगभग 17 वर्षों तक लगातार यात्रा करते रहे और आखिर में चित्रकूट में निवास करने लगे. यहीं उन्होंने संवत् 1631 में रामचरित मानस की रचना प्रारंभ की और इसे पूरा करने में उन्हें 2 साल 7 महीने का समय लगा.
बहुत कम लोगों को पता होगा कि सूरदास जी से प्रभावित होकर गोस्वामी जी ने गीतावली और कृष्ण गीतावली की भी रचना की. इन दोनो ग्रंथों की रचना उन्होंने रामचरित मानस से पहले ही की थी.
goswami tulsidas ki rachna
इन तीन ग्रंथों के अलावा भी उन्होंने 9 और रचनाएं की। यह रचनाएं थीं- दोहावली, कवितावली, रामाज्ञा, प्रश्नावली, विनयपत्रिका, रामलला-नहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण और वैराग्य संदीपनी.
तुलसी दास जी की मृत्यु
तुलसी दास जी की मृत्यु संवत 1680 में श्रावण कृष्णा की तीज को गंगा के असी घाट पर हुई. इसके संबंध में एक tulsidas dohe दोहा भी है-
संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।।
तुलसी दास जी का योगदान
गोस्वामी तुलसीदास जी का सबसे बड़ा योगदान रामचरित मानस ही माना जाता है जिसके माध्यम से उन्होंने राम को जन-जन का आराध्य बना दिया. उन्होंने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से सिर्फ भक्ति का ही नहीं बल्कि समाज सुधार का संदेश भी दिया.
उन्होंने भारतीय साहित्य की भी बहुत सेवा की. हिंदी कविता को इन्होंने पूरे विश्व में पहचान दिलवाई. उन्होंने काव्य की सभी शैलियों में अपनी रचनाएं की. उनकी भाषा का अलंका अनूठा और अद्वितीय था. इन्होंने ब्रज और अवधी दोनों में अपनी बात कही. संस्कृत पर भी वे अधिकार से रचना करते थे.
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veri nice
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