अफस्पा पर निबंध
भारत का उत्तर-पूर्व सीमावर्ती इलाका हमेशा से अशांत रहा और यह अशांति रह-रह कर फूट पडऩे वाले किसी सक्रिय ज्वालामुखी की तरह काम कर रही है. भारत का उत्तर-पूर्वी इलाका सबसे शुरूआती और सबसे लंबे समय तक अशांत रहने वाला क्षेत्र है. इस क्षेत्र में बसने वाली नगा जनजाति ने सबसे पहले 1952 में सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाया था. तब से लेकर अब तक किसी न किसी वजह से यह क्षेत्र अशांत ही रहा. आइए जानते हैं कि AFSPA अफस्पा क्या है.
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असम का संक्षिप्त इतिहास Brief History of Assam
असम का अर्थ है अनुपम या अद्वितीय. इस शब्द की उत्पति संस्कृत शब्द असोमा से हुई है. कुछ विद्वान इस शब्द की उत्पति अहोम से मानते हैं. अहोम वंश ने इस भूमि पर लंबे समय तक शासन किया है. 1826 में यह क्षेत्र यंडाबू की संधि के तहत बर्मा से ब्रिटिश सत्ता को प्राप्त हुआ. भारत के राज्य असम का कुल क्षेत्रफल 78,483 वर्ग किलोमीटर है. दिसपुर इसकी राजधानी है और असमिया इस क्षेत्र में बोली जाने वाली मुख्यभाषा है.
असम को पूर्वाेतर भारत का प्रहरी और पूर्वोतर का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है. यह भूटान और बंगलादेश से लगी भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के समीप है. असम के उत्तर में भूटान और अरूणाचल प्रदेश, पूर्व में मणिपुर, नगालैंड और अरूणाचल प्रदेश तथा दक्षिण में मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा है. असम कृषि प्रधान राज्य है और चावल यहां की मुख्य फसल है. जूट, चाय, कपास, तिलहन, गन्ना, आलू आदि नकदी फसलें हैं.
असम अपने वन्यजीव अभ्यारण्यों के लिए प्रसिद्ध है और कुल वन क्षेत्र का 22.21 प्रतिशत वन क्षेत्र इस राज्य में इस स्थित है. राज्य में कुल 11 वन्यजीव अभ्यारण्य और पांच राष्ट्रीय पार्क है. काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान एक सींग वाले जंगली गैंडो और मानव बाघ अभ्यारण्य रॉयल बंगाल टाइगर के लिए प्रसिद्ध है. कृषि आधारित उद्योगों में चाय का स्थान प्रमुख है.
राज्य में चार तेलशोधक कारखाने हैं जिनमें से डिगबोई का तेलशोधक कारखाना खासा मशहूर है. राज्य में कई किस्म का रेशम का उत्पादन भी किया जाता है. मूगा रेशम की एक ऐसी किस्म है जिसका उत्पादन सिर्फ असम में किया जाता है. बिहू असम का प्रमुख पर्व है. यह साल में तीन बार मनाया जाता है- रंगीला बिहू या बोहाग बिहू फसल की शुरूआत का प्रतीक है और इससे नए वर्ष का भी शुभारंभ होता है.
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भोगली बिहू या माघ बिहू फसल कटाई का त्यौहार है और काती बिहू या कांगली बिहू शरद ऋतु का एक मेला है. असम की परंपरागत नाट्यशैली को भावना के नाम से संबोधित किया जाता है. ब्रह्मपुत्र नदी में स्थित माजूली दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है. ब्रह्मपुत्र राज्य में बहने वाली प्रमुख नदी है.
Assam Bangladeshi Problem
असम में बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या
असम में आतंंकवाद की समस्या की शुरूआत असमी लोगों के पहचान संकट के साथ तब शुरू हुई जब भारत विभाजन के समय तब के पूर्वी पाकिस्तान से भारी संख्या में शरणार्थीयों ने असम की ओर पलायन करना शुरू कर दिया. हालांकि इस बात को आधी शताब्दी बीत चुकी है लेकिन आज भी बांगलादेश से पलायन करके भारत आने वालों की संख्या में कमी नहीं हुई है और इस समस्या ने पूरे उत्तर-पूर्व के जनसांख्यिकीय आंकड़ों को बदल कर रख दिया है.
असम में इस घुसपैठ को लेकर असंतोष धीरे-धीरे बढऩे लगा और जुलाई 1979 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (एएएसयू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) के नेतृत्व में आंदोलन की शुरूआत हुई. इन आंदोलनकारियों की मांग थी कि असम से रह रहे सभी बाहरी लोगों को बाहर किया जाए और इन बाहरी लोगों की परिभाषा तय करते हुए 1951 के बाद आए सभी लोगों को इस श्रेणी में शामिल करने की वकालत की. इसी परिभाषा को लेकर भारत सरकार और आंदोलनकारियों के बीच मतभेद उभरे और बातचीत असफल रही.
दरअसल भारत सरकार 1971 के बाद आए लोगों को ही बाहरी मानने पर अपनी सहमति दे रही थी और आंदोलनकारी इससे संतुष्ट नहीं थे. बातचीत में असफल होने के बाद आंदोलनकारियों ने शांति का मार्ग छोड़ दिया और आंदोलन ने हिंसात्मक रूख धारण कर लिया. सरकार को राज्य में शांति व्यवस्था कायम करने के लिए इसी साल दिसम्बर में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. इस अशांति के बीच शिवसागर में 7 अप्रेल 1979 के बीच यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम या उल्फा अस्तित्व में आया.
उल्फा और असम Insurgency of ULFA in Assam
परेश बरूआ इस संगठन का अध्यक्ष था और अरविंद राजखोआ प्रमुख तथा अनुप चेटिया प्रमुख सचिव के तौर पर काम करने लगे. प्रदीप गोगोई इस संगठन का उपाध्यक्ष चुना गया जो 8 अप्रेल 1998 से कैद में है. इस संगठन का मुख्य उद्देश्य असम को बाहरी लोगों से निजात दिलाना और एक स्वतंत्र असम की स्थापना करना है.
इस संगठन ने आसू और असम गण संग्राम परिषद के अपने हाथों में ले लिया. यह आतंकवाद के बल पर अपने लक्ष्यों की पूर्ति में विश्वास करता था. अपने संगठन के उद्देश्यों को समझाते हुए उल्फा के पूर्व प्रचार सचिव सुनील नाथ ने लिखा था कि उल्फा तो केवल साफतौर पर हो रहे अन्यायों के विरूद्ध समाज में प्रचलित असंतोष की भावना का ही लाभ उठा रहा है.
राज्य पुलिस और सेना सहित अन्य सुरक्षा बलों को, अद्र्ध न्यायिक शक्तियों से लैस करने के बाद दूषित हुए लोकतांत्रिक वातावरण ने आम असमवासियों में पृथकतावाद तथा असमी युवाओं में खासतौर पर सशस्त्र पृथकतावाद को बढ़ावा देने में उत्प्रेरक का काम किया है.
राज्य में शांति व्यवस्था को बनाए रखने और उल्फा पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए 28 मार्च 1980 से सेना तैनात कर दी गई. सेना तैनाती ने कोढ़ में खाज का काम किया और लोगों में असंतोष और बढ़ गया. सरकार ने एक और कदम आगे बढ़ाते हुए असम के काद्दार और उत्तरी काद्दार क्षेत्र को छोडक़र असम अशांत क्षेत्र अधिनियम 1955 के तहत शेष असम को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया.
असम और अफस्पा
6,अप्रेल, 1980 को सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) अधिनियम, 1958 (एएफएसपीए)लागू कर दिया जो आगे चलकर बड़े विवाद का कारण बना. इसी अधिनियम की वजह से कई बार भारत सरकार को मानवाधिकारों के हनन का अपराधी घोषित करने की चेष्टा की गई. इसके बाद आने वाले तीन सालों तक वार्ता के कई दौर चले लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. बातचीत में असफलता मिलने के बावजूद केन्द्र सरकार ने असम में एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन का प्रयास शुरू कर दिया और परिणिती के तौर पर फरवरी 1983 में राज्य में विधानसभा चुनाव करवाए गए और कांग्रेस ने बहुमत प्राप्त किया. हितेश्वर सैकिया मुख्यमंत्री चुने गए. इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने का भी असम के असंतोष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और हिंसा का दौर जारी रहा.
इसी बीच केन्द्र में परिवर्तन हुआ और राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने खुले दिल से असम के अंसतोष को सुलझाने के लिए वार्ता की पहल की. 15 अगस्त 1985 को असम समझौता अस्तित्व में आया. हालांकि सरकार अपने पिछले कदम पर ही कायम रही और बाहरी व्यक्ति को परिभाषित करने के लिए 25 मार्च 1971 की तारीख निर्धारित की गई.
इसके बाद आए सभी व्यक्तियों को सरकार ने राज्य से बाहर निकालने का वादा किया. यह समझौता आसू और असम गण संग्राम परिषद के साथ हुआ था. इसके बाद इस संगठन के नेताओं ने असम गण परिषद के रूप में काम करना शुरू कर दिया जो असम की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास करती थी. इस समझौते को उल्फा ने मानने से इंकार कर दिया और अब तक साथ चल रहे संगठन असम गण परिषद से दूरियां बना ली.
इसके ठीक बाद 1985 में हुए आम विधानसभा चुनावों में असम गण परिषद सत्ता में आई और प्रफुल्ल कुमार मंहत मुख्यमंत्री चुन लिए गए. उल्फा ने लगातार अपना आंदोलन जारी रखा और बातचीत के कई दौर हो जाने के बाद भी वह भारत सरकार के साथ किसी समझौते तक पहुंच पाने में असफल रही. संगठन ने अपना विस्तार जारी रखा और वह भारत विरोधी अन्य संगठनों से स्वयं को जोडऩे की कवायद में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और पूर्वाेतर के अन्य आतंकवादी संगठनों के साथ गठजोड़ करने लगा.
उसने बाहरी व्यक्तियों की हत्या, बम धमाकों और सुरक्षाबलों के साथ गुरिल्ला पद्धति से लडक़र राज्य में आतंकवाद का वातावरण तैयार किया. इस असुरक्षा के वातावरण ने नब्बे तक इतना जोर पकड़ लिया कि सरकार को राष्ट्रपति शासन स्थापित करने के लिए मजबूर होना पड़ा और 28 नवंबर 1990 को एक बार फिर से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया.
उल्फा पर प्रतिबन्ध Ban of Ulfa
उल्फा को गैर कानूनी गतिविधियां(निरोधक) अधिनियम 1967 के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया. राज्य को एक बार फिर से सेना के हवाले कर दिया गया और उसने शांति स्थापित करने के लिए ऑपरेशन बजरंग चलाया जिसमें बड़ी संख्या में सुरक्षाबल और आतंकवादियों को मौत के मूंह में जाना पड़ा लेकिन इससे उल्फा कमजोर हो गया और शांति स्थापित हो सकी.
शांति स्थापना के तुरंत बाद ही एक बार फिर से लोकतांत्रिक सरकार के गठन के लिए 1991 में विधानसभा चुनाव करवाए गए और असम गण परिषद को हार का मूंह देखना पड़ा और कांग्रेस सत्ता में आई. उल्फा चुनाव परिणामों से खासा असंतुष्ट हुआ और उसने एक बार फिर से अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए राज्य में हत्याओं का दौर शुरू कर दिया. सेना को एक बार फिर हस्तक्षेप करना पड़ा.
आतंकवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को इस बार सेना ने ऑपरेशन राइनो नाम दिया लेकिन सरकार ने असम के लोगों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए लिए ऑपरेशन को बीच में ही रोक दिया और असंतुष्टों को बातचीत की टेबल पर आने के लिए आमंत्रित किया. साथ ही सरकार ने आत्मसमर्पण कर देने वाले आतंकवादियों के लिए आम माफी की भी घोषणा की ताकि उन्हें एक बार फिर से मुख्यधारा से जोड़ा जा सके.
ऑपरेशन गोल्डन बर्ड Operation Golden Bird
इस फैसले की कई विशेषज्ञों ने आलोचना की क्योंकि कमजोर पड़ चुके उल्फा को जड़ मूूल से मिटाने का यह अच्छा मौका था. मौके का लाभ उठा कर एक बार फिर से उल्फा ने अपने आप को मजबूत कर लिया और बातचीत से स्वयं को हटा लिया. भारतीय सेना से स्वयं को बचाने के लिए उल्फा ने भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश में अपने कैम्प खोल लिए और संगठन के बड़े नेताओं ने इन्हीं देशों में शरण ली. हालांकि म्यांमार ने इनको प्रश्रय देने से इंकार कर दिया और 1995 में म्यांमार की सेना ने भारतीय सेना के साथ मिलकर उल्फा के शिविरों की सफाई के लिए ऑपरेशन गोल्डन बर्ड चलाया.
ऑपरेशन ऑल क्लियर क्या है? Operation All Clear in Hindi
1996 में हुए विधानसभा चुनावों में एक बार फिर से असम गण परिषद को सफलता प्राप्त हुई. इस बीच उल्फा का उत्पात कुछ कम हुआ लेकिन भूटान और बांग्लादेश के अपने कैम्पों से वे लगातार अपने को संगठित करने का काम कर रहे थे. भूटान ने भारत सरकार से वादा किया कि वे भारत के खिलाफ किसी भी संगठन को अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देंगे और भारत सरकार के दबाव के परिणामस्वरूप 2003 में भूटान की सेना उल्फा के आतंकवादी शिविरों को नष्ट करने के लिए ऑपरेशन ऑल क्लियर चलाया.
इस ऑपरेशन ने इस आतंकवादी संगठन के जड़ पर वार किया और यह खात्में की कगार पर पहुंच गया लेकिन पहले की ही तरह भारत सरकार ने उसके खिलाफ सैन्य कार्रवाई रोककर उसे बातचीत का न्यौता दे डाला और उल्फा को फिर से संगठित होने का मौका मिल गया. हमेशा की तरह वार्ता किसी नतीजे पर नहीं पहुंची और उल्फा ने अपनी शक्ति दर्शाने के लिए बम विस्फोट और नरसंहार का सहारा लेना शुरू कर दिया. उल्फा को अपने आतंकवादियों गतिविधियों के कारण आमजन का समर्थन मिलना कम हो गया और समय के साथ उल्फा भूतकाल का हिस्सा बन गया. वैसे असम के लोगों में अभी भी असंतोष बना हुआ है क्योंकि बाहरी लोगों की समस्या को हल करने के लिए अभी भी कड़े कदम उठाने में सरकार विफल रही है.
Bodo Insurgency in Assam असम में बोडो उग्रवाद की समस्या
असम की दूसरी प्रमुख समस्या बोडो उग्रवाद या अलगाववाद था हालांकि इस समस्या हल कर लिया गया है लेकिन आगे कोई जनजाती इस तरह का अलगाववादी आंदोलन नहीं चलाएगी यह देखने वाली बात है. बोडो जनजाति असम की सबसे पुरानी जनजाति के रूप में जानी जाती है. साथ ही बोडो और असमियों के बीच हमेशा विवाद रहा है क्योंकि दोनों ने एक दूसरे को स्वीकार करने और सह-अस्तित्व से इंकार कर दिया है.
बोडो असम पर अपना अधिकार मानते हैं और इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए अपने लिए कुछ विशेषाधिकारों की मांग करने लगे ताकि बहुसंख्यक असमिया जनसंख्या के बीच अपनी संस्कृति और जाति पहचान की रक्षा की जा सके. बोडो जनजाति के इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए 1967 में ऑल बोडो स्टूडेन्टस यूनियन ने आंदोलन का आगाज किया.
उपेन्द्रनाथ ब्रह्मा के नेतृत्व में आंदोलन ने जोर पकड़ लिया. शांतिपूर्ण आंदोलनों से अपने उद्देश्य की पूर्ति न होता देखकर बोडो लोगों ने हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लिया और 1989 में बोडो सिक्योरिटी फोर्स नाम के उग्रवादी संगठन की स्थापना कर डाली जो आगे चलकर नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के नाम से मशहूर हुआ. इस संगठन का मुख्य उद्देश्य एक स्वतंत्र बोडोलैंड की स्थापना करना था.
कई साल तक आतंकवादी गतिविधियां संचालित करने के बाद आखिर में 20 फरवरी 1993 में केन्द्र सरकार, असम सरकार और बोडो नेताओं ने असम की सीमाओं के भीतर ही एक स्वायत्तशासी बोडोलैंड परिषद की स्थापना समझौते पर हस्ताक्षर किए और 2003 में समझौते के अस्तित्व में आते ही सालों से चल रहा बोडो आंदोलन अपनी परिणिती को पहुंच गया.
चिकन नैक बनाम सिलिगुडी कॉरिडोरChicken Neck Vs Siliguri Corridor
सिलिगुडी कॉरिडोर अपने दूसरे नाम चिकन नैक से ज्यादा जाना जाता है. दरअसल यह एक पतला सा गलियारा शेष भारत को उत्तर-पूर्व से जोड़ता है. यह पट्टी कहीं पर महज 21 किलोमीटर से अधिकतम 40 किलोमीटर तक चौड़ी है. इसके एक और नेपाल तथा दूसरी ओर बांग्लादेश स्थित है और यह भौगोलिक स्थिति इसे सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण बनाती है. इसी वजह से इसे चिकन नैक कहा जाता है क्योंकि इस संकरे गलियारे पर कब्जा होने की स्थिति में भारत का अपने उत्तर-पूर्वी भाग से संपर्क एकदम टूट जाएगा. यह भारत की स्थिति कमजोर बनाता है. इस संकरे से गलियारे का सिलिगुड़ी सबसे प्रमुख नगर है. चिकन नैक 1947 में भारत-पाक विभाजन के दौरान नक्शे पर आया. नक्शे पर इस भाग को इसलिए चिह्नित किया गया ताकि भारत का संपर्क असम से जोड़ा जा सके. चिकन नेक पश्चिम बंगाल राज्य के अंतर्गत आता है.
IMDT Act in Hindiअवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण पहचान) कानून (आइएमडीटी एक्ट)
1985 में हुए असम समझौते के अनुसार 25 मार्च 1971 के बाद आए विदेशी लोगों को असम से बाहर निकालने के लिए 15 अक्टूबर 1983 को भारत सरकार ने एक अध्यादेश पारित कर ऐसे ट्रिब्युनलों को गठित किया जिनका काम अवैध अप्रवासियों की पहचान कर उन्हें देश से बाहर निकालना था. यह अध्यादेश 12 दिसम्बर 1983 को संसद में पारित हुआ और कानून अस्तित्व में आया. कानून केवल असम राज्यक्षेत्र में मान्य था. इसका प्रमुख उद्देश्य अवैध बांगलादेशियों की पहचान कर उन्हें वापस भेजना था. इस अवैध पहचान को सुनिश्चित करने का कार्यभार इन विशेष ट्रिब्यूनलों को सौंपा गया.
असम के अलावा शेष राज्यों में इस समस्या से निपटने के लिए विदेशी नागरिक कानून, 1946 को आधार बनाया जाता है. दोनों कानूनों में एक बड़ा अंतर है. आईएमडीटी एक्ट के तहत किसी भी व्यक्ति की विदेशी पहचान को सिद्ध करने की पूरी जिम्मदारी शिकायतकर्ता पर होती है अगर वह इसमें असफल होता है तो विदेशी को आरोप से बरी मान लिया जाता है जबकि विदेशी नागरिक कानून के तहत अपनी नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी स्वयं आरोपी पर होती है.
आईएमडीटी एक्ट के तहत अवैध प्रवासी को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि 1. ऐसा व्यक्ति जो भारत में 25 मार्च 1971 को या उसके बाद अवैध तरीके से आया है 2. एक विदेशी था 3. भारत में बिना पासपोर्ट या उसके अलावा कानूनी कागजातों के बिना प्रवेशित हुआ है. साथ ही इस एक्ट की धारा 4 व 9 में इस बात की भी व्यवस्था की गई है कि जो व्यक्ति 25 मार्च 1971 से पहले भारत में आए वे इस कानून के तहत नहीं आते हैं.
इस कानून पर सबसे बड़ा विवाद इस बात को लेकर है कि अवैध प्रवासी को अवैध साबित करने की जिम्मेदारी शिकायतकर्ता पर होने को लेकर है. ऐसी स्थिति में अवैध प्रवासी की स्थिति मजबूत हो जाती है क्योंकि उसे अपना पक्ष रखने से छूट मिल जाती है और सबूतों के अभाव में शिकायतकर्ता अपनी बात को साबित नहीं कर सकता. ज्यादातर अवैध प्रवासियों ने अपने नाम के वोटर आईडी कार्ड व राशन कार्ड बना लिया है. ऐसी सूरत में यह और मुश्किल होता जा रहा है. वोट की राजनीति ने और ज्यादा काम बिगाड़ दिया है. इस कानून की अक्षमता को लेकर असम गण परिषद के नेता और ऑल असम स्टूडेंटस यूनियन के अध्यक्ष सरबानंद सोनोवाल ने अप्रैल, 2000 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें आईएमडीटी एक्ट की वैधता पर ही प्रश्रचिह्न लगा दिया गया था.
याचिकाकर्ता ने इस कानून के औचित्य पूछते हुए कहा था कि इस कानून से अवैध अप्रवासियों के हितों की रक्षा होती है जबकि इसे उन्हें रोकने के लिए बनाया गया था. साथ ही विदेशी नागरिकों की पहचान करने के लिए जब पहले से ही देश में एक कानून का अस्तित्व है तो इसी तरह के दूसरे कानून का कोई अर्थ नहीं रह जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने 12 जुलाई 2005 को इस याचिका का निपटारा करते हुए अपने निर्णय में इसे अवैध घोषित कर दिया और इस कानून के तहत गठित ट्रिब्युनलों को भंग करने का आदेश दिया.
Armed Forces Special Powers Act, 1958 सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) कानून, 1958, अफ्सपा क्या है
अफस्पा कानून भारत के ब्रिटिशकालीन अवशेष के तौर पर जाना जाता है और ब्रिटिश सरकार के सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) अध्यादेश पर आधारित है जिसे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान लागू किया गया था.
आजादी के बाद पहली बार इसका प्रयोग असम और मणिपुर में आतंकवादी घटनाओं और संगठनों पर लगाम लगाने के लिए किया गया. शुरूआत में यह सिर्फ कुछ समय के लिए लगाया गया था लेकिन स्थिति सुधरते न देख इसे न हटाने का फैसला लिया गया.
इस कानून को संसद ने सितंबर 1957 में पास किया और मई 1958 से यह अस्तित्व में आ गया. इस कानून के मूल स्वरूप में इसे लागू करने का अधिकार और किसी भी क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित करने का अधिकार राज्य की सरकारों को दिया गया था लेकिन भारत की एकता और अखण्डता को ध्यान में रखते हुए 1972 में एक संशोधन के जरिए इस कानून को लागू करने का अधिकार केन्द्र सरकार ने अपने हाथों में ले लिया.
राज्यपाल केन्द्र को इस कानून को लागू करने की अभिशंसा कर सकता है. यह कानून सुरक्षा बलों को कुछ विशेषाधिकार प्रदान करते हैं जो वे आवश्यकता पडऩे पर इस्तेमाल कर सकते हैं इसमें बिना सर्च वारंट के तलाशी लेने का अधिकार और बिना अरेस्ट वारंट के गिरफ्तारी करने का अधिकार शामिल है.
इस अधिकार के तरह राज्य में कानून की व्यवस्था बनाए रखने के लिए सेना और सहायक सुरक्षा बल गोली चलाने और इस दौरान किसी की जान लेने का अधिकार भी रखते हैं. दरअसल यह कानून सुरक्षाबलों को असीमित अधिकार प्रदान करता है. सेना इसे आतंकवाद से निपटने का कारगर औजार मानती है जबकि यहां के निवासी इसे मानवाधिकारों का हनन मानते हैं और इसका पूरजोर विरोध करते हैं.
वैसे तो इस कानून की आड़ में सेना द्वारा मानवाधिकारों के हनन के आरोप हमेशा लगते रहे हैं लेकिन जुलाई 2004 में एक मणिपूरी महिला थांगजम मनोरमा की हत्या को लेकर लोगों का रोष सडक़ों पर उतर आया और इस घटना ने आंदोलन का रूप ले लिया. मनोरमा की मौत के बाद मणिपुर में अपुनबा लूप नाम का नागरिक संगठन अस्तित्व में आया और उसे बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू किए जिसकी धमक अंतरराष्ट्रीय स्तर तक सुनी गई.
केन्द्र सरकार ने मणिपुरियों को आश्वासन दिया कि वे जल्दी ही इस कानून की जगह दूसरा कानून लागू करेंगे जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ नागरिक हितों का भी पूरा ध्यान रखा जाएगा. सरकार ने इस कानून की समीक्षा के लिए पूर्व न्यायधीश बी.पी.जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय समिति गठित कर दी.
रेड्डी समिति ने जून 2005 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी जिसमें उनहोंने अफस्पा को वापस लेने की सिफारिश की. हालांकि सरकार ने इसमें संशोधन की बात को स्वीकार कर लिया है लेकिन इसे वापस लेने की मांग पर वह फिलहाल नकरात्मक रूख अपनाए हुए है.
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