बहादुरशाह जफर का मुकदमा
बहादुरशाह जफर भारत के अंतिम मुगल बादशाह थे. 1857 के गदर में हिस्सा लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने जफर को अपना नेता घोषित किया था. जब अंग्रेजों ने छल कपट की नीति पर चलते हुए भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का दमन कर दिया. अंग्रेजों ने 20 सितम्बर, 1857 को दिल्ली के किले पर फिर से कब्जा कर लिया।
जफर को स्वतंत्रता सेनानियों का साथ देने की भारी कीमत चुकानी पड़ी. अंग्रेजों ने उनके 24 शहजादों की हत्या करवा दी. जफर को हुमायूं के मकबरे से पकड़कर उनकी बेगम जीनत महल और शहजादे जवां बख्त के साथ नजरबंद कर दिया गया.
बहादुरशाह जफर को नजरबंद किए जाने के बाद 27 जनवरी 1858 से उन पर मुकदमा चलाया गया। मुकदमा इस मायने में अनूठा था कि सभी को पहले से ही पता था कि जज अपना फैसला बहादुरशाह जफर के खिलाफ ही देने वाला है। इस मुकदमे में 82 साल के बुजुर्ग जफर को अंग्रेजों के खिलाफ गदर का दोषी करार दिया जाना था.
बहादुरशाह जफर का 27 जनवरी 1858 को दिल्ली के लाल किले के दीवाने खास में कोर्ट मार्शल किया गया. कोर्ट के पुराने अध्यक्ष ब्रिगेडियर शॉवर्स की जगह ले. कर्नल दावेस की अध्यक्षता में कोर्ट मार्शल की कार्यवाही की गई। कोर्ट के अन्य जजों में तीन मेजर और एक कैप्टन थे.
शहजादा जवां बख्त और जफर के वकील गुलाम अब्बास की मदद से जफर छड़ी के सहारे चलते हुए दीवान-ए-खास में पहुंचे. अंग्रेजों के वकील मेजर एफ.जे. हैरियट ने पहले ही यह साफ कर दिया था कि कोर्ट मार्शल के दौरान प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही के साथ-साथ सुनी-सुनाई गवाहियों को भी मान्य किया जाएगा.
कोर्ट मार्शल की कार्रवाई का इरादा तो इसी से जाहिर हो गया था. फिर जैसे ही मुकदमा शुरू हुआ, जजों ने जवां बख्त को बार-बार बातें कर जजों का ध्यान भंग करने के आरोप में बाहर भिजवा दिया.
जवां बख्त को बाहर किए जाने के बाद बहादुरशाह जफर अकेले रह गए. 82 वर्षीय बुजुर्ग बादशाह आखिर यह कैसे समझ पाते कि अदालत में क्या चल रहा है. वे खामोशी से सबकुछ सुनते रहते, बस तब ही मुंह खोलते थे जब जज उनसे पूछते थे कि तुम कसूरवार हो या बेकसूर. जफर जवाब देते- बेकसूर. जबकि, शायद वह भी जानते थे कि अंग्रेजों ने जो सजा उनके लिए तय कर रखी है वह उन्हें मिलेगी ही.
जफर के विरुद्ध ये अभियोग तय किए गए
-ब्रिटिश सरकार के वेतन और पेंशनभोगी हिंदुस्तानी अधिकारियों और सिपाहियों को सरकार के ही विरुद्ध लड़ने के लिए उकसाना.
-अपने ही बेटे मिर्जा मुगल को राजद्रोह के लिए भड़काना.
-ब्रिटिश हुकूमत की प्रजा होते हुए भी राजद्रोह कर खुद मुल्क का बादशाह होने का ऐलान करवाना.
-16 मई 1857 को महल में 49 यूरोपीय लोगों की हत्या करवाना.
शाही दरबार से 11 मई से लेकर 20 सितम्बर 1857 के बीच जारी किए गए शाही हुक्मों की नकल सबूत के तौर पर प्रस्तुत की गईं. सरकारी गवाह हकीम अहसानुल्ला ने बहादुरशाह जफर के दस्तखत की तस्दीक की.
बहादुरशाह जफर ने अगले दिन मुकदमे की कार्रवाई शुरू होने पर अर्जी दी कि उनके वकील गुलाम अब्बास उनके साथ रहेंगे. इसके बाद गुलाम अब्बास को ब्रिटिश हुकूमत ने इतनी यातनाएं दीं कि वे सरकारी गवाह बनने को तैयार हो गए.
उन पर दबाव डालकर जफर के खिलाफ जाने वाले बयान उनसे दिलवाए गए. यही नहीं, अंग्रेजों ने बहादुरशाह के पूर्व सचिव मुकुंदलाल से यह झूठी गवाही भी दिलवाई की महल में रहने वाले अंग्रेजों की हत्या उनके हुक्म से ही हुई थी.
मुकुंदलाल ने अंग्रेजों का वफादार बनने के फेर में अपनी गवाही में बहादुरशाह जफर के साथ उनकी बेगम जीनत महल, उनकी पुत्री और दो अन्य बेगमों को भी लेपेटे में ले लिया और गवाही दी कि अंग्रेजों की हत्या इन सबने मिलकर करवाई थी. 4 मार्च 1858 को बहादुरशाह ने अपने बेकसूर होना का बयान दिया, जो उर्दू में था. इसके बाद, सरकारी वकील हैरियट ने बयान दिया, जो 9 मार्च 1958 तक चला.
हैरियट का बयान खत्म होने के बाद कोर्ट ने सर्वसम्मति से अपना फैसला सुनाया। मुकुंदलाल की गवाहियों के आधार पर बहादुरशाह जफर को सभी चारों अभियोगों को दोषी करार दिया गया. अदालत ने जफर को देश से निर्वासन की सजा सुनाई.
बहादुरशाह जफर को सजा सुनाए जाने के बाद 7 अक्टूबर 1858 को बेगम जीनत महल और बेटे जवां बख्त के साथ रंगून भेज दिया गया. 8 दिसम्बर 1858 को वे रंगून पहुंचे.
रंगून में कैद में रहते हुए ही बहादुरशाह जफर की मौत 7 नवम्बर, 1862 को हो गई। उन्हें श्वेडागोन पैगोडा के बाहर दफनाकर उनकी कब्र को घास से ढंक दिया गया ताकि किसी को भी उनकी कब्र के बारे में पता नहीं चल सके. हिंदुस्तान के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के जनाजे में उतनी ही भीड़ थी, जितनी किसी आम आदमी के जनाजे में होती है.
जफर की दरगाह उनकी मौत के सवा सौ से भी अधिक साल बाद 1994 में बनवाई गई। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जब म्यांमार के दौरे पर गए तो वे बहादुर शाह जफ की दरगाह पर भी गए. भारत सरकार अंतिम मुगल बादशाह जफर की कब्र को भारत लाने का प्रयास कर रही है.
जफर भारत के अंतिम मुगल बादशाह होने के साथ-साथ उर्दू के नामचीन शायर भी थे. वे अपने सूफी मिजाज और धार्मिक सद्भावना के लिए जाने जाते थे. बहादुर शाह जफर बादशाह अकबर शाह और उनकी राजपूत पत्नी लालबाई की संतान थे. जफर चाहते थे कि उनको दिल्ली के महरौली में दफ्न किया जाए, लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा होने नहीं दिया. जफर का आखिरी वक्त कितनी परेशानी और निराशा में बीता यह उनकी लिखी इन पंक्तियों से जाहिर होता है.
कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए,
दो गज जमीं भी न मिली कू-ए-यार में।
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