Govind dev Ji Temple Jaipur-जयपुर के गोविन्द देव जी

गोविन्द देव जी मंदिर जयपुर का सबसे प्रसिद्ध मंदिर और देवालय है। श्री गोविन्द देव जी को जयपुर का धणी या अधिपति माना जाता है। जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह जी ने स्वयं को गोविंद देव का दीवान स्वीकार किया था। उन्होंने अपने आप को भगवान गोविन्द देव के श्रीचरणों में समर्पित करते हुए कहा था कि — ”श्री गोविन्द देवचरण सवाई जयसिंह शरण।

गोविन्द देव जी की मान्यता इतनी अधिक है कि पूरी दुनिया से सैलानी और कृष्ण भक्त भगवान के सुंदर विग्रह के दर्शन करने के लिए आते हैं। जयपुर अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थलों के लिए तो जाना ही जाता है लेकिन गोविन्द देव जी कृपा से उसकी धार्मिक पहचान भी पूरी दुनिया में स्थापित हो गई है। गोविन्द देव जी के जयपुर पधारने की कथा भी अनुपम है और ऐतिहासिक भी है। इस लेख में हम आपको गोविन्द देव जी मंदिर के इतिहास और महात्म्य दोनों की जानकारी प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं।

कृष्ण भक्ति परम्परा के विभिन्न रूप

भारत भर में कृष्ण की भक्ति और उनके स्वरूप के विविध प्रकारों के अनुरूप ​विभिन्न कृष्ण सम्प्रदाय विख्यात है। वल्लभ सम्प्रदाय के आराधक भगवान कृष्ण के बालरूप की पूजा करते हैं तो गौड़ीय सम्प्रदाय को मानने वाले कृष्ण की युगल छवि अर्थात राधा कृष्ण की पूजा करते हैं।

गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु हैं। वृंदावन में स्थित श्री राधा रमण जी का मंदिर इस सम्प्रदाय के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। जयपुर में स्थित गोविन्द देव जी मंदिर गौ​ड़ीय सम्प्रदाय या परम्परा का मंदिर है। यहां भगवान कृष्ण के साथ ही राधा रानी का विग्रह भी विराजमान है।

गोविन्द देव जी का इतिहास- History of Govind Dev Ji

आमेर के राजा पहले नागपंथी थे। शक्ति के उपासक थे फिर बालाबाई के प्रभाव में वैष्णव भी हुए। 16वीं शताब्दी में कृष्ण भक्त हुए। वृंदावन में आमेर के राजा मानसिंह ने मंदिर का निर्माण भी करवाया और वहीं से गोविन्द देव जी का वर्तमान विग्रह जयपुर आया।

16वीं शताब्दी के आरंभ तक कृष्ण की लीलास्थली वृंदावन और मथुरा में मंदिरों का वैभव कम हो चुका था। इस ब्रज क्षेत्र में चैतन्य महाप्रभु 1514 ईस्वी में आए और भागवत पुराण के आधार पर उन स्थानों को चिन्हित किया जो कृष्ण भक्तों के लिए बहुत महत्व रखती थी। उनके दो शिष्यों रूप और सनातन तथा उनके भतीजे जीव गोस्वामी ने उन मूर्तियों की खोज की जो आक्रमणकारियो के डर से या तो जमीन में दबा दी गई थी या फिर उनकी गुपचुप पूजा परिवारों के माध्यम से की जा रही थी।

गोविन्द देव जी की मूर्ति को 1525 में गोमा टीला नामक स्थान पर खोजा गया। रूप गोस्वामी ने उसी स्थान पर कृष्ण की पूजा प्रारंभ की लेकिन 1590 में आमेर के राजा मानसिंह ने वृंदावन में एक विशाल मंदिर कर निर्माण करवाकर इस विग्रह को वहां स्थापित करवा दिया। राजा मानसिंह की मृत्यु के बाद इस विग्रह की सुरक्षा के लिए राजस्थान लाने का विचार किया गया।

गोविन्ददेव जी को राजस्थान लाने के दौरान पहले कामां लाया गया। इस स्थान पर गोविन्द देव जी के विग्रह की सुरक्षा का भार मिर्जा राजा जयसिंह के भाई कीरत सिंह के परिवार के सदस्य महाराजा उदयसिंह को दिया गया। वहां से गोविन्दपुरा रूपाहेड़ा होते हुए भगवान के विग्रह को कनक वृंदावन लया गया। कवि आत्माराम ने लिखा है कि:

बंध निकट आमैरि तै, जैनिवासि की राह।
वृंदावन रचना रची, फेरि भूप जयसाह।

बरसात के दौरान कनक वृंदावन के झील का पानी ऊपर तक चला आता था इस असुविधा को दूर करने के लिए जयपुर के जयनिवास बाग में इस विग्रह को प्रतिष्ठित किया गया। इसके कुछ दिनों बाद गोविन्ददेव जी को सूरजमहल के वर्तमान परिसर में लाया गया। किवदंती है कि सवाई जयसिंह जब जयपुर बसा रहे थे तब वे उस बारहदरी में रहते थे जहां आज भगवान विराजते हैं, उन्हें रात को स्वप्न आया कि यह स्थान भगवान का है। अगले ही दिन जयसिंह जी सूरजमहल को छोड़कर चन्द्रमहल में रहने चले गए।

गोविन्ददेव जी के विग्रह की कथा

गोविन्ददेव जी का जो वर्तमान विग्रह जयपुर में विराजमान हैं, उसकी बहुत सुंदर कथा का वर्णन मिलता है। मान्यताओं के अनुसार भगवान कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने यह विग्रह बनवाया था। वज्रनाभ की दादी ने भगवान कृष्ण को मानव स्वरूप में देखा था।

वज्रनाभ ने भगवान का जब पहला विग्रह तैयार करवाया उसे देखकर वज्रनाभ की दादी ने कहा कि विग्रह के पांव और चरण तो बिल्कुल कृष्ण जैसे बने ने लेकिन अन्य अवयव नहीं मेल खाते। इस विग्रह को मदनमोहन जी के नाम से जाना गया और यह वर्तमान में करौली में विराजमान हैं।

वज्रनाभ ने भगवान कृष्ण का दूसरा विग्रह तैयार करवाया। उसे देखकर उनकी दादी ने कहा कि वक्षस्थथ और बाहु सही बने है। बाकि मेल नहीं खाते हैं। इस विग्रह को गोपीनाथ जी के नाम से जाना गया। गोपीनाथ जी वृंदावन में विराजमान हैं।

इसके बाद ​तीसरी मूर्ति बनाई गई जिसे देखकर वज्रनाभ की दादी ने घूंघट कर लिया और कहा कि यह भगवान की साक्षात मूर्ति है। इन्हें गोविन्ददेव जी के नाम से ख्याति मिली और वर्तमान वे जयपुर में विराजमान हैं।

गोविन्ददेव मंदिर का वास्तुशिल्प

गोविन्ददेव जी का मंदिर बारहदरी को बन्द कर मंदिर परिसर में बदला गया है। यह परिसर संगरमरमर के बहुत सुंदर दोहरे स्तम्भ और लदाव की छत शैली में बना है। इस शैली में छत में पट्टियां नहीं होती है। मध्यकालीन राजपूती शैली का यह नायाब उदाहरण है।

गोविन्ददेव जी मंदिर में स्थापित अन्य विग्रह

गोविन्ददेव मंदिर में भगवान गोविन्ददेव जी के अलावा चैतन्य महाप्रभु की अपनी निजी सेवा की गौर गोविन्द की लघु प्रतिमा काशीश्वर पंडित के साथ वृंदावन होते हुए यहां प्रतिष्ठित किया गया है। गोविन्ददेव जी के साथ राधारानी जी की प्रतिमा की स्थापना बाद में की गई। 1633 में उड़ीसा के राजा प्रताप रूद्र देव ने बड़े धूम—धाम से श्रीकृष्ण के साथ राधारानी का विवाह सम्पन्न करवाया तब उनके साथ राधा जी की प्रतिमा स्थापित की गई।

जयनिवास बाग मे आने के बाद किन्तु वर्तमान मंदिर में स्थापना के पहले सवाई जयसिंह ने ललिता सखी की एक प्रतिमा बनवाकर श्री राधाजी की सेवा में लगाई थी और इस प्रतिमा की भोग की व्यवस्था भी की थी। यहां एक मूर्ति विशाखा सखी जी की भी है। जिसकी प्रतिष्ठा सवाई जयसिंह जी के पौत्र प्रतासिंह जी ने करवाई।

श्री गोविन्ददेव जी की पोशाक

ठाकुर जी की पोशाक मौसम के अनुसार मुख्य से दो तरह की होती है :
सर्दी की पोशाक और गर्मी की पोशाक। सर्दी की पोशाक जामा पोशाक कहलाती है तथा सूती, सिल्क, रेशम व सिन्थेटिक रेशों और पारचा की बनी होती है। गर्मी की पोशाक में धोती-दुपट्टा शामिल है एवं यह सूती कपड़े, वायल, मलमल और सिल्क की होती है।

साधारणतया सभी पोशाकों पर गोटा लगाया जाता है। पुरानी पोशाकों पर तो यह सच्चा, सोने चाँदी से ही बना हुआ होता था। त्योहार, उत्सव व विशेष दिनों में पोशाकें अलग-अलग होती है :

1. एकादशी : गोटा लगी हुई नटवर वेश पोशाक लाल रंग में।
2. पूर्णिमा : गोटा लगी हुई सफेद पोशाक। शरद पूर्णिमा को रुपहली पार्चा की तथा रास पूर्णिमा को सुनहरे पार्चे की जामा पोशाक।
3. अमावस्या : गोटा लगे हुए काले रंग की पोशाक।
4. चैत्र के महीने में: फूलों की कलियों से बने हुए वस्त्र फूलों से सजाये
हुए लकड़ी के फ्रेम (मोगरा, रायबेल, रजनीगंधा की कलियाँ और गुलाब आदि के पुष्प।)

गोविंद देव जी मंदिर जयपुर समय सारणी- Govind Dev Ji time table

दिनसमय
सोमवार4:30 पूर्वाह्न – 12:00 अपराह्न
5:45 अपराह्न – 9:30 अपराह्न
मंगलवार4:30 पूर्वाह्न – 12:00 अपराह्न
5:45 अपराह्न – 9:30 अपराह्न
बुधवार4:30 पूर्वाह्न – 12:00 अपराह्न
5:45 अपराह्न – 9:30 अपराह्न
गुरुवार4:30 पूर्वाह्न – 12:00 अपराह्न
5:45 अपराह्न – 9:30 अपराह्न
शुक्रवार4:30 पूर्वाह्न – 12:00 अपराह्न
5:45 अपराह्न – 9:30 अपराह्न
शनिवार4:30 पूर्वाह्न – 12:00 अपराह्न
5:45 अपराह्न – 9:30 अपराह्न
रविवार4:30 पूर्वाह्न – 12:00 अपराह्न
5:45 अपराह्न – 9:30 अपराह्न

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