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हिंदू धर्म के 16 संस्कार
सनातन हिंदू Hindu धर्म में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। हिंदू धर्मग्रंथों में विभिन्न स्थानों पर 16 संस्कारों का उल्लेख है। इनमें तीन संस्कार जन्म के पूर्व गर्भ में, 12 संस्कार जीवनपर्यंत तथा एक संस्कार व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत किया जाता है।
संस्कार कर अर्थ: Meaning of Sanskar
संस्कार Sanskar शब्द का सटीक अर्थ तो किसी भी भाषा में नहीं है। परन्तु हिंदू धर्मग्रंथों Hindu Scriptures के अनुसार संस्कार का तात्पर्य शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति की दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों Rituals से है। जिनसे व्यक्ति समाज का पूर्ण विकसित और संस्कृत सदस्य बन सके।
संस्कार का उद्देश्य: Purpose of Sanskar
सनातन धर्म में संस्कार का उद्देश्य केवल औपचारिक दैहिक संस्कार ही नहीं है। हिंदू धर्म में संस्कार का उद्देश्य संस्कारित व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि और पूर्णता का है। जीवन के विभिन्न चरणों में जीवन की भौतिकता और व्यक्ति की मानसिकता के परिष्कार के लिए संस्कारों का प्रावधान किया गया है।
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संस्कारों का उदय: Origin of Sanskar
हिंदू धर्म रीतियों Hindu Customs में विभिन्न जगह संस्कारों और संस्कार की विधियों की धार्मिक और दार्शनिक व्याख्या की गई है। अर्वाचीन धर्मग्रंथों से बात शुरू करें तो संस्कारों का उदय वैदिक काल में हो चुका था। वेदों के कर्मकाण्ड वाले मंत्रों से इसकी जानकारी मिलती है परन्तु वैदिक साहित्य में संस्कार शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। यहां तक की ब्राह्मण साहित्यों में भी इस शब्द का उल्लेख तो नहीं है परन्तु उपनयन और अंत्येष्टि सहित कई संस्कारों का वर्णन अवश्य मिलता है। इससे स्पष्ट है कि संस्कारों का उदय वैदिक काल में हो चुका था।
संस्कारों की संख्या: Number of Sanskar
हिंदू धर्मशास्त्रों में संस्कार गृहसूत्रों और स्मृतियों आदि में बताए गए हैं। शास्त्रों के इन गृहसूत्रों में संस्कारों की अलग—अलग संख्या बताई गई है। उदाहरण के तौर पर आश्वलायन गृहसूत्र में संस्कारो की संख्या 11, पारस्कर, बौधायन और वाराह गृहसूत्र में 13—13 तथा वैखानस गृहसूत्र में संस्कारों की संख्या 18 बताई गई है। गौतम धर्मसूत्र में तो 40 संस्कारों तक का उल्लेख मिलता है।
स्मृतियों की रचना के समय तक यज्ञिय धर्म हास की ओर जाना शुरू हो गया था। मनु के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक केवल 13 संस्कार ही यथार्थ हैं जबकि परवर्ती स्मृतियों में 16 संस्कारों का उल्लेख है। व्यास स्मृति के अनुसार हिंदू धर्म में 16 संस्कार हैं जो इस प्रकार हैं। गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नामक्रिया, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, वपनक्रिया, कर्णवेध, व्रतादेश, वेदारम्भ, केशांत, स्नान, उद्वाह, विवाहाग्निपरिग्रह और त्रेताग्निसंग्रह।
स्मृतियों की रचना के समय तक यज्ञिय धर्म हास की ओर जाना शुरू हो गया था। मनु के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक केवल 13 संस्कार ही यथार्थ हैं जबकि परवर्ती स्मृतियों में 16 संस्कारों का उल्लेख है। व्यास स्मृति के अनुसार हिंदू धर्म में 16 संस्कार हैं जो इस प्रकार हैं। गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नामक्रिया, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, वपनक्रिया, कर्णवेध, व्रतादेश, वेदारम्भ, केशांत, स्नान, उद्वाह, विवाहाग्निपरिग्रह और त्रेताग्निसंग्रह।
सोलह संस्कार विधियां:
Sanskar Methods
स्वामी दयानंद सरस्वती Swami Dayanand Sarswati की संस्कार विधि Sanskar Vidhi और पंडित भीमसेन शर्मा की षोड़श संस्कार विधि में सोलह संस्कारों का उल्लेख है। प्रचलित हिंदू धर्म विधियों में सोलह संस्कार ही लोकप्रिय हैं। हिंदू धर्म की आधुनिक पद्धतियों में षोड़श संस्कारों को ही मान्यता दी गई है। यहां उल्लेख करना जरूरी है कि गौतम ने 48 संस्कारों का मान्यता दी थी फिर भी उनकी सूची में अंत्येष्टि संस्कार को सम्मिलित नहीं किया गया था। गृहसूत्रों से लेकर धर्मसूत्रों और स्मृतियों में भी इस संस्कार का कोई उल्लेख नहीं है। अंत्येष्टि को शुरूआत में एक अशुभ संस्कार माना गया और इसे अन्य शुभ संस्कारों के साथ नहीं रखा गया। मेरी व्यक्तिगत राय में तो यह धारणा भारतीय दार्शनिक परम्परा के अनुकूल प्रतीत नहीं होती है। हालांकि इस धारणा का समर्थन करने वाले मत के अनुसार मृत्यु के बाद व्यक्ति के संस्कार का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
अध्यात्मिक महत्व: Spiritual Importance
जिस प्रकार आध्यात्मिकता हिंदूधर्म का अभिन्न अंग है उसी प्रकार हिंदू धर्म में संस्कारों का आध्यात्मिक महत्व है। संस्कार जीवन की आत्मवादी और भौतिक धारणाओं के बीच मध्यममार्ग का काम करते हैं। संस्कार एक प्रकार से आध्यात्मिक शिक्षा के क्रमिक चरणों को दर्शाते हैं। संस्कार विधियों के माध्यम से व्यक्ति को अपने देह को अध्यात्म से जोड़ने का माध्यम प्राप्त होता है।
संस्कारों का भौतिक उद्देश्य: Materialistic Aim
हिंदू धर्म में संस्कारों का भौतिक उद्देश्य भी है। प्राचीनकाल में पशु, संतान, दीर्घ जीवन, सम्पति, समृद्धि, शक्ति और बुद्धि की प्राप्ति प्रमुख भौतिक उद्देश्य थे। हिंदू धर्मावलम्बियों का विश्वास रहा है कि प्रार्थना और पूजा—अर्चना के माध्यम से देवता याचक की इच्छा को जान लेते हैं और उन्हें पूरा करते हैं।
वैज्ञानिक विवेचना: Scientific Importance
हिंदू धर्म रीति के लोकप्रिय 16 संस्कारों का सम्बंध न केवल धर्म और अध्यात्म से है बल्कि इनका वैज्ञानिक महत्व भी है। आइए जानते हैं हिंदू धर्म के 16 संस्कार और उनकी वैज्ञानिक विवेचना-
गर्भाधान संस्कार (Garbhadhan)
उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए गर्भाधान संस्कार किया जाता है। किसी व्यक्ति का गर्भ में किसी प्रकार बीज लगे, उसकी बुद्धि, मन और शरीर किस प्रकार उत्तम हो, इस बारे में वैदिक ऋषियों और महर्षियों ने जो चिंतन किया, उसी का रूप इस संस्कार में देखने को मिलता है।
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज में अनादि रूप जीव पूर्व से ही विद्यमान रहता है।
गर्भाधान संस्कार से यह सुनिश्चित किया जाता है कि वीर्य और रज शुद्ध बने रहें और इनसे उत्पन्न होने वाली संतति पर आगंतुक और प्राकृतिक दोषों का बुरा प्रभाव नहीं पड़े।
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज में अनादि रूप जीव पूर्व से ही विद्यमान रहता है।
गर्भाधान संस्कार से यह सुनिश्चित किया जाता है कि वीर्य और रज शुद्ध बने रहें और इनसे उत्पन्न होने वाली संतति पर आगंतुक और प्राकृतिक दोषों का बुरा प्रभाव नहीं पड़े।
पुंसवन संस्कार (Punsvan)
गर्भ में पल रही संतान में ही संस्कारों की नींव रखी जाती है और इसे ही पुंसवन संस्कार कहते हैं। शरीर शास्त्र के अनुसार गर्भ के दो—तीन महीने तक स्त्री—पुरुष के रजोवीर्य भ्रूणों में प्रतिस्पर्धा होती है और जो प्रबल होता है उसी के भाव का संतान में आधान होता है। इसीलिए मस्तिष्क विकसित होने वाली इस अवधि में भ्रूण के पोषण और बल के लिए मंत्रोच्चार के साथ गर्भवति स्त्री को वट, शुंग, कुश तथा दूर्वा का रस दाहिने नाक से प्रवेश कराया जाता है। नाक के छिद्रों का शरीर की नसों के साथ सम्बंध होता है जिनमें रक्त प्रवाह होता है। इस प्रकार भ्रूण तक पुरुषत्व प्रधान उष्मा पहुंचती है। साथ ही गर्भवति स्त्री की मनस्थिति का प्रभाव भी संतान पर पड़ता है इसलिए मत्स्य पुराण में गर्भिणी स्त्री को सदा प्रसन्न रहना चाहिए और आचरण शुद्ध रखना चाहिए।
सीमंतोन्यन संस्कार (Simatonyan)
गर्भाधान के चौथे,छठे या आठवें माह में यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भपात को रोकना है। शरीर शास्त्र के अनुसार यही महीने गर्भ के लिए भ्रंशकारी हैं। इस संस्कार में पति अपनी गर्भवति पत्नी के बालों को विभाजित करता है। इसमें पति तीन लोकों के प्रतिनिधि पदों भूर्भव: स्व: का उच्चारण करते हुए पत्नी के बालों को उपर की ओर संवारता है। इस संस्कार में उदुम्बर नामक पेड़ एक शाखा को स्त्री के गले में बांधा जाता है।
जातकर्म संस्कार (Jaatkarma)
यह संस्कार संतान के जन्म लेने के बाद किया जाता है। यह संस्कार संतान के कई दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है ताकि व्यक्ति जीवनपर्यंत स्वस्थ रहे। इस संस्कार में रोटी को बलि के रूप में बांटकर वैश्वानर को समर्पित किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार ऐसा करने से जातक गौरवपूर्ण, पवित्र और समृद्ध जीवन यापन करता है। इस संस्कार में रोटी के स्थान पर पकवानों को भी बलि के रूप में दिया जा सकता था परन्तु रोटी को बलि के रूप में स्वीकार करना एक संयम की धारणा करना है।
नामकरण संस्कार (Naamkaran)
यह एक ऐसा संस्कार है जिसका सम्बंध व्यक्ति के जीवन ही नहीं
बल्कि उसके जीवन के बाद भी रहता है। नाककरण के बारे में श्रुतियों में कहा गया है—
बल्कि उसके जीवन के बाद भी रहता है। नाककरण के बारे में श्रुतियों में कहा गया है—
‘द्वादशेऽह्नि पिता नाम कुर्यात्’
इसका अर्थ है बारहवें दिन पिता द्वारा नामकरण किया जाना चाहिए। आचार्यों ने शिशु के चार नाम रखने के नियम दिए हैं। पहला नाक्षत्र नाम, दूसरा गुप्त नाम, तीसरा सर्वसाधारण नाम और चौथा यज्ञप्रयुक्त नाम। नामकरण के बारे में महाभाष्यकार पतंजलि ने कहा है कि जातक का नाम दो अक्षरों वाला चार अक्षरों वाला होना चाहिए। वहीं मनु ने कहा है कि नाम शुभसूचक, शक्तिरोधक और शांतिदायक होना चाहिए। मनु ने यह भी कहा है कि नाम के साथ एक उपपद भी होना चाहिए जिससे प्रसन्नता रक्षा और पुष्टि का संकेत मिल रहा हो।
6. कर्णवेध संस्कार (Karnvedha)
इस संस्कार में शिशु के कोमल कानों में एक सूचिका द्वारा छेद किया जाता है। यह संस्कार जितना व्यावहारिक और दार्शननिक है उतना ही वैज्ञानिक भी। इसका व्यावहारिक पक्ष मुखमंडल की सौंदर्यता से है। वहीं चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से कर्णवेध से हाइड्रोसील नामक रोग से विमुक्ति होती है। इसी प्रकार दर्शन के अनुसार यह संसार एक शून्य है और कर्णवेध इसका परिचायक है।
7. निष्क्रमण संस्कार (Nishkramana)
निष्क्रमण का अर्थ है बहिर्गमन। वैदिक साहित्यों में वर्णन के अनुसार जन्म के चौथे महीने में निष्क्रमण संस्कार होना चाहिए। इस संस्कार की विधियों में बच्चे को घर से बाहर निकाला जाना, सर्वप्रथम सूर्य के दर्शन कराया जाना, वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाना और ब्राह्मणों के भोजन का आयोजन किया जाना सम्मिलित हैं। बच्चे को सूर्य के सामने लाया जाना इस बात को स्पष्ट करता है कि बच्चे का जीवन ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के आदर्श से मण्डित हो। सूर्य की उर्जा किसी भी सजीव के लिए प्राण का स्रोत है। चौथे माह में यह संस्कार इसलिए किया जाता है क्योंकि इससे पूर्व सूर्य के तेज के सामने बच्चे को लाया जाने के लिए उसकी त्वचा अत्यंत कोमल होती है।
अन्नप्राशन संस्कार (Annaprashan)
जन्म से छठे महीने तक शिशु को केवल पानी और दूध ही दिया जाता है। इसके बाद शुभ मुहुर्त में पिता चंद्रबल और ताराबल को ध्यान में रखते हुए यह संस्कार करता है। इस संस्कार में अन्न को दही, शहद और घी में मिलाकर अनुष्ठान करते हैं। बच्चे का पाचन तंत्र छह माह में मजबूत होता है इसीलिए अन्नप्राशन संस्कार छठे माह में किया जाता है।
चूडाकर्म संस्कार (Choodakarma)
धर्म शास्त्र के अनुसार चूडाकर्म संस्कार जन्म के तीसरे वर्ष में सम्पन्न होता है। इसे मुण्डन कर्म भी कहा जाता है जिसमें माता—पिता अपनी संतान को गोद में बिठाकर संतान का सिर मुण्डवाते हैं। इसमें सिर के बाल काटकर शिखा के रूप में कुछ बाल छोड़ दिए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि मस्तिष्क में ज्ञान के लिए जो अत्यंत संवेदनशील स्थल है वह शिखा के नीचे होता है। स्मृतियों के अुनसार शिखा की आकृति गाय के खुर जितनी चौड़ी होनी चाहिए।
विद्यारम्भ संस्कार (Vidhyarambha)
इस संस्कार के द्वारा क्षण भंगुर संसार में व्यक्ति के प्रवेश के बाद विद्या रूपी परम लक्ष्य की प्राप्ति का श्रीगणेश किया जाता है। भारतीय संस्कृति में विद्यारम्भ संस्कार का महत्व अन्य सभी संस्कारों से महत्त्वपूर्ण है। ‘लालयेत् पंचवर्षाणि’ के आधार पर प्रारम्भ के पांच वर्ष में बालक का जीवन लाड—प्यार से भरा होता है और इस अवधि में उसकी चपलता और चित्त की अस्थिरता पराकाष्ठा पर होती है। इसीलिए यह समय अध्ययन के लिए परिपक्व नहीं माना गया। पांच वर्ष के बाद बालक में ग्राह्यता शक्ति पैदा होती है और यही समय विद्यारम्भ के लिए सबसे उपयुक्त है। विद्यारम्भ संस्कार के समय विष्णु, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा की जाती है। इसके पीछे कारण यह है कि लक्ष्मी प्रेयस मार्ग और सरस्वती श्रेयस् मार्ग की देवी हैं वहीं विष्णु दोनों के बीच समन्वयक के रूप में स्थापित होते हैं। इस संस्कार में कोई संभ्रांत व्यक्ति बालक को धरती पर मिट्टी में अक्षर लिखवाकर विद्यादान करवाता है। बच्चों को मिट्टी में खेलने में आनंद की अनुभूति होती है इसलिए विद्या की ओर उसकी रूचि पैदा करने के लिए ऐसा कराया जाता है।
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उपनयन संस्कार (Upnayana)
विद्यारम्भ संस्कार से जीवन की ज्ञान यात्रा में जो शुरूआत होती है उसे दृढ करने के लिए उपनयनन संस्कार किया जाता है। उपनयन का साधारण अर्थ है कि ज्ञान रूपी नेत्र का प्रस्फोटन करना। स्मृतियों और श्रुतियों के अनुसार उपनयन संस्कार के बाद ही बालक वेदों के अध्ययन के लिए योग्य माना जाता है।
प्राचीनकाल में इस संस्कार के बाद बालक गुरुकुलों में ही रहते थे ताकि उन्हें ज्ञान के परम तत्व को जानने का हर अवसर मिले। इस संस्कार को यज्ञोपवीत और जनेउ संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार के दौरान जनेउ धारण की जाती है। जनेउ धारण करने का वैज्ञानिक महत्व भी है। शौच जाते समय जनेउ से कान को बांधने से कान के पास से गुजरने वाली एक पतली सी नस बंध जाती है। इससे हृदय प्रदेश के अवयव प्रभावित होती हैं और हृदय रोगी की आशंका कम हो जाती है।
प्राचीनकाल में इस संस्कार के बाद बालक गुरुकुलों में ही रहते थे ताकि उन्हें ज्ञान के परम तत्व को जानने का हर अवसर मिले। इस संस्कार को यज्ञोपवीत और जनेउ संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार के दौरान जनेउ धारण की जाती है। जनेउ धारण करने का वैज्ञानिक महत्व भी है। शौच जाते समय जनेउ से कान को बांधने से कान के पास से गुजरने वाली एक पतली सी नस बंध जाती है। इससे हृदय प्रदेश के अवयव प्रभावित होती हैं और हृदय रोगी की आशंका कम हो जाती है।
वेदारम्भ संस्कार (Vedarambh)
उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति वेदों का अध्ययन आरम्भ करता
है। केवल भारतीय संस्कृति में ही इतनी कम उम्र में व्यक्ति गूढ़ ज्ञान की शिक्षा लेना प्रारम्भ कर देता है। इस ज्ञान तत्व से ही मनुष्य संसार के अन्य जीवों से अपने आप को अलग करने की क्षमता पैदा करता है। इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण होता है और इसीलिए इस वेदारम्भ संस्कार को सबसे आदरणीय संस्कार माना जाता है।
है। केवल भारतीय संस्कृति में ही इतनी कम उम्र में व्यक्ति गूढ़ ज्ञान की शिक्षा लेना प्रारम्भ कर देता है। इस ज्ञान तत्व से ही मनुष्य संसार के अन्य जीवों से अपने आप को अलग करने की क्षमता पैदा करता है। इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण होता है और इसीलिए इस वेदारम्भ संस्कार को सबसे आदरणीय संस्कार माना जाता है।
समावर्तन संस्कार (Samavartan)
ब्रह्मचर्य आश्रम से ज्ञान प्राप्त कर गृहस्थ आश्रम में लौटने के लिए इस संस्कार में व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार किया जाता है।समावर्तन संस्कार में अध्यापक अपने शिष्य से वैदिक परम्पराओं के अनुसार मातृ देवो भव, पितृ देवा भव और अतिथि देवो भव जैसे आदर्शों की पालना के लिए शपथ ग्रहण करवाते हैं। इसके बाद एक मानवीय जीवन जीने की शर्त पर गुरू या अध्यापक अपने शिष्य को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिए अनुमति और आशीर्वाद देते हैं।
केशांत संस्कार (Keshant)
इस संस्कार को गोदान संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार किशोरावस्था की समाप्ति और युवावस्था के आरम्भ पर किया जाता है। शारीरिक विकास के साथ—साथ जब शरीर की आकांक्षाएं पनपने लगती हैं तब यह संस्कार कर व्यक्ति को नियंत्रित, संस्कृत और स्वस्थ भाव भूमि से युक्त किया जाता है। इस संस्कार में युवक के दाढ़ी और मूछें काटी जाती हैं। सुश्रुत और चरक ने भी इसे स्वास्थ्य के लिए जरूरी माना है। शतपथ ब्राह्मण में भी कहा गया है कि दाढ़ी—मूंछ के कारण जल चेहरे को पूरी तरह साफ नहीं कर पाता इसलिए इन्हें काटा जाना चाहिए। इस संस्कार में शिष्य नाखून भी काटता है और गुरू को गाय का दान करता है।
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विवाह संस्कार (Vivah)
यह संस्कार मनुष्य की मृत्यु से पूर्व का अंतिम संस्कार है। विवाह का अर्थ है ‘विशेषेण वाह्यते इति विवाह:’ अर्थात विशिष्ट प्रकार से वहन करना विवाह है। भारतीय परम्परा के ग्रंथों में प्रमुखत: 8 प्रकार के विवाह बताए गए हैं जिनमें से प्रजापत्य विवाह का सर्वाधिक चलन रहा है। इसे आधुनिक भाषा में अरेंज मैरिज कहा जाता है। सृष्टि के तीन शाश्वत सत्यों उत्पति, स्थिति और प्रलय में से स्थिति अवयव के लिए विवाह को सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। वहीं पितृऋण से मुक्ति के लिए यह संस्कार आवश्यक है। इस संस्कार में स्त्री और पुरुष संयुक्त रूप से धर्म की पालना का संकल्प लेते हैं और एक दूसरे के हाथ को विशिष प्रकार से वहन करते हैं। इसीलिए इस संस्कार को पाणिग्रहण संस्कार भी कहा जाता है।
अंत्येष्टि संस्कार (Antyeshthi)
मृत्यु के बाद शरीर को अग्नि को समर्पित करने के लिए यह संस्कार किया जाता है। किसी भी व्यक्ति का यह आखिरी संस्कार होने के कारण इसे अंतिम संस्कार भी कहा जाता है। इस संस्कार का दार्शनिक पहलु यह है कि जिन पांच तत्वों से शरीर बना है उसी में शरीर को पुन: मिला देना है। इस संस्कार में आत्मा छोड़ चुके शरीर को उस व्यक्ति का सबसे प्रिय व्यक्ति ही मुखाग्नि देता है।