नव संवत्सर पूजा विधि

नव संवत्सर या चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को संवत्सरारम्भ भी कहा जाता है। चैत्र महीने की शुक्ला प्रतिपदा को विक्रमीय सम्वत् का पहला दिन माना जाता है इसीलिए इसे संवत्सरारम्भ कहते हैं। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है कि पृथ्वी के साथ संवत्सरों का चिर-सम्बन्ध है। प्रत्येक सवत्सर का इतिहास हमारे पिछले वर्ष के कार्यों का मूल्यांकन और अगले वर्ष के शुभ संकल्पो का द्योतक है।

नव संवत्सर या संवत्सरारम्भ: चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

वेद तो माँ वसुंधरा का यशोगान करते हुए यहाँ तक कहते हैं कि हे पृथ्वी तुम्हारे ऊपर संवत्सर का नियमित ऋतुचक्र घूमता है ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर और वसंत का विधान अपनी-अपनी निधियो को प्रतिवर्ष तुम्हारे चरणो मे अर्पण करता है। प्रत्येक संवत्सर का लेखा असीम है। माँ वसुंधरा की दैनिकचर्या तथा अपनी कहानी दिन-रात और ऋतुयों के द्वारा संवत्सर में आगे बढ़ती चली जा रही है।

बसंत ऋतु की किस घड़ी मे किस फूल को प्रकृति अपने रंगो की तूलिका से रंगती है, दिन रात तथा ऋतुएं किस वनस्पति में माँ वसुंधरा का रस जमा करती हैं, पंख फैलाकर उड़ने वाली तितलियाँ एव यत्र तत्र चमकने वाले जुगनू कहाँ से कहां जाते हैं, किस समय क्रौंच पक्षियों की कलरव करती हुई पत्तियां मानसरोवर से लोटती हुई हमारे हरे-भरे लहलहाते हुए खेतों मे मंगल करती हैं, किस समय मे तीन दिन तब बहने वाला प्रचंड फगुनहट वृक्षों के पुराने पत्तो को धराशायी कर देता है, और किस समय पुरवाई हवा चलकर आकाश को मेघों की छटा से आच्छादित कर देती है इस ऋतु विज्ञान की कथा विश्व के कानों में बहते हुए नव संवत्सर का प्रत्येक पल अपनी तेज रफ्तार से आगे चढता चला जाता है। उसी नव संवत्सर या प्रारम्भ इस शुभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।

नवसंवत्सर की कथा

प्राचीन युग की मान्यता के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना इसी दिन से प्रारम्भ हुई थी। ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि दूसरे सभी देवी-देवताश्री ने आज से ही सृष्टि के संचालन का कार्यभार सम्भाला । अथर्ववेद मे विधान है कि आज के दिन उसी संवत्सर की सुवर्ण-प्रतिमा बनाकर पूजनी चाहिए। यह संवत्सर तो साक्षात् सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्माजी या मूर्तिमान प्रतीक है। आज के दिन से रात्रि को अपेक्षा दिन बड़े होने लगते हैं। ईरानियों में प्राज ही के दिन नौरोज मनाया जाता है, जो संवत्सरारम्भ का पर्याय है। धार्मिक तथा ऐतिहासक दृष्टियों से इस तिथि का इसीलिए इतना अधिक महत्त्व है ।

कैसे करें नव संवत्सर की पूजा

शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायियों के मत से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रि का प्रारम्भ होता है। शाक्त लोग अपने व्रत अनुष्ठान आदि आज की तिथि से प्रारम्भ करते हैं और समूचा वर्ष हमारे तथा देश के लिए शुभ हो, इस मंगल कामना से शक्तिस्वरूपा भगवती दुर्गा का पाठ प्रारम्भ करते हैं जो नौ दिन तक चलता है। वैष्णव लोग भी आज से रामायण आदि का पाठ प्रारम्भ करते हैं ।

वैदिक युग मे समस्त नागरिक प्रात काल स्नान करके अक्षत, पुप्प और जल लेकर विधिवत् संवत्सर का पूजन करते थे और परस्पर एक-दूसरे से मिलकर हरे भरे एवं सरसो के पीले फूलों के परिधान मे लिपटे खेतों पर जाकर नई फसल का दर्शन करते थे। बाद में अपन अपने घरो पर लाकर नई बनी हुई वेदी पर स्वच्छ वस्त्र पर हल्दी अथवा केसर से रंगे हुए अक्षत् या अष्टदल कमल बना, उसके ऊपर साबुत नारियल या संवत्सर ब्रह्मा की मुर्त प्रतिमा रखकर ‘ओ ब्रह्मणे नमः’ मंत्र से ब्रह्मा का आवाहन और पूजन करके गायत्री मंत्रो से हवन करते थे। अंत में सबका कल्याण हो यह प्रार्थना करते थे।

आज के दिन जरूरतमंदो को और गरीबो को भोजन करावें तथा सामर्थ्य के अनुसार नए वस्त्रो का दान करें। इससे समाज मे सुख और शान्ति होगी, आपस का प्रेम बढ़ेगा। निर्धनों को धन देकर और निर्बलों की सहायता करके ऊँचा उठने का अवसर प्रदान करें। पिछड़े लोगो को आगे बढ़ने का मौका दे। आपसी कटुताएं दूर करें और छोटे-बड़े या ऊँच नीच की भावना मिटाकर सबके साथ समानता का व्यवहार प्रारम्भ करे। यही संवत्सर-पूजन का रहस्य है।

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