अरुंधती व्रत चैत्र शुक्ला तृतीया की पुण्य तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत सौभाग्य और सुख देने वाला माना जाता है। और संवत्सर प्रारंभ होने के बाद आने वाला पहला व्रत उत्सव है। इस व्रत की पूरे देश में बहुत मान्यता है। इसकी कथा और पूजा विधि का वर्णन हम यहां दे रह हैं।
अरुंधती व्रत पूजा विधि
अरुंधती प्रजापति कर्दम ऋषि की पुत्री और महर्षि वशिष्ठ की धर्मपत्नी थी। उन्हीं के नाम पर इस व्रत की परम्परा आरम्भ हुई थी। सौभाग्यशाली महिलाओं को उनके चरित्र से प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं, साथ ही वैधव्य दोष का परिहार होता है। यह व्रत चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर तृतीया को पूरा होता है।
प्राचीनकाल मे जो लोग किसी नदी पर अथवा घर मे स्नान करके इस व्रत का सम्पन्न करते थे। दूसरे दिन द्वितीया वो नवीन धान्य पर कलश रखकर उसके ऊपर अरुंधती, वशिष्ठ और ध्रुव को तीन मूर्तियां स्थापित करते थे गणपति के पूजन के पश्चात् उसका पूजन होता था। तृतीया शिव-पार्वती का पूजन करके व्रत की समाप्ति होती थी।
अरुन्धती व्रत कथा
अरुंधती व्रत कथा पुराणों में इस प्रकार दी गई है। बहुत प्राचीनकाल में किसी विद्वान् ब्राह्मण की कन्या छोटी उम्र मे ही विधवा हो गई। एक दिन यमुना नदी में स्नान कर वह शिव पार्वती या पूजन कर रही थी कि स्वयं शिव-पार्वती उस मार्ग से निकले। देवी पार्वती ने शिव से उसके बालवैधव्य का कारण पूछा।
शिव ने कहा- देवि। पहले जन्म में यह लड़की पुरूष थी और एक ब्राह्मण परिवार में इसका जन्म हुआ था। परन्तु परस्त्री मे आसक्ति रखने के कारण इसे नारी जन्म मिला और अपनी विवाहिता पत्नी को दुखी रखने के हेतु वैधव्य का दुख उठाना पड़ रहा है। ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ के नियमानुसार इसे यह दुख सहना पड़ेगा।
पार्वती ने पूछा- प्रभो। क्या इस पाप का प्रायश्चित्त किसी रीति से हो सकता है? भगवान शिव ने कहा – प्रिय, आज से बहुत पहल जन्मी हुई सती अरुंधती के पावन चरित्र को स्मरण करती हुई यह बालिका यदि अपना शरीर त्याग दे तो इसे अगले जन्म मे सदाचार पालन करने को बुद्धि प्राप्त हो सकती है और इसके वैधव्य योग का परिहार हो सकता है।
देवी पार्वती ने अवसर देखकर अकेले ही उस बालिका के सामने पहुँच उसके दोष और गुण उसे समझाए एवं अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए पतिव्रत धर्म का महत्व तथा देवी अरुंधती के चरित्र को समझाया। पावती की सीख पाकर उस वालिका ने चिरकाल तक देवी अरुंधती का स्मरण करते हुए शरीर त्याग किया। जिसके फल- स्वरूप उसे दूसरे जन्म मे सुखी गृहिणी का जीवन प्राप्त हुमा ।
अपनी विवाहिता पत्नी का अनादर और परस्त्री मे अनुराग रखना दोनो ही भयंकर सामाजिक अपराध हैं। इन दोनों दुष्प्रवृत्तियों के फल घातक होते हैं। इनके हेतु काफी दंड भोगना पड़ता है। इनसे बचने का उपाय यही हो सकता है कि ऐसे व्रत और अनुष्ठानों के द्वारा शुद्ध मनोवृत्ति विकास किया जाना ही इस व्रत का रहस्य है।
यदि पुरष यह चाहते हैं कि उनकी पत्नियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली गृहलक्ष्मियों के समान हो तो उन्हें भी एक पत्नीव्रत का पालन करते हुए स्त्रियों का आदर करना सीखना होगा। तभी उनके जीवन मे सुख और शान्ति कायम रह सकेगी।
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