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स्वावलम्बन Essay on self-reliance

स्वावलम्बन Essay on self-reliance

स्वावलम्बन पर निबंध- Essay on self-reliance

स्वावलम्बन शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है. पहला ‘स्व’ और दूसरा ‘अवलम्बन’. ‘स्व’ का अर्थ है अपना और ‘अवलम्बन’ का अर्थ है सहारा, अर्थात् अपना सहारा आप होना या अपनी सहायता आप करना स्वावलम्बन कहलाता है. स्वावलम्बन एक ऐसा गुण है जिसके आधार पर मनुष्य रंक से राजा बन सकता है.

संसार के कठिन से कठिन कार्यो का आसानी से पूरा कर सकता है. स्वावलम्बी पुरूष ही संसार में उन्नति की सीढ़ी पर चढ़ते है. स्वावलम्बन के बिना मनुष्य की शोभा और शक्ति का विकास नहीं होता. जो व्यक्ति स्वावलम्बी नहीं है वह धन, सम्पति, मान मर्यादा सबके रहते हुए भी एक न एक दीन, हीन, पराधीन नहीं होते. पश्चिमी देशों के व्यक्ति अत्यधिक परिश्रमी, अध्यवसायी और स्वावलम्बी हैं. यही कारण है कि ज्ञान-विज्ञान की उन्नति में वे सबसे अग्रणी है.

भारतवर्ष में स्वावलम्बन की आवश्यकता

भारतवर्ष में स्वावलम्बन की मात्रा कम है. यहां के लोग ‘भाग्यवादी’ अधिक है. यहां तो मलूकदास की इस भावना का अधिक प्रचार है:

अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम.
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम.

ईश्वर के भरोसे से सब कुछ छोड़कर बैठना ईश्वर भक्ति नहीं अपितु कायरता और आलस्य की निशानी है. ईश्वर तो उन्ही की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते है. अंग्रेजी की यह कहावत प्रसिद्ध है, ‘God helps those who help themselves’ जो स्वयं अपनी उन्नति नहीं कर सकते, संसार में उसकी कोई सहायता नहीं करता. छोटे से छोटे काम से लेकर बड़े-बड़े उद्योगों तक सभी में परिश्रम की आवश्यकता होती है. बिना उद्योग या परिश्रम के शरीर भी अपना साथ नहीं देता, फिर दूसरों का तो कहना ही क्या ?

जो व्यक्ति स्वावलम्बन का महत्व समझता है वह जीवन में सदा सफलता प्राप्त करता है. उसे कभी दूसरों का मुख नहीं ताकना पड़ता. आत्म-सन्तोष उसे सदैव प्रसन्न रखता है. विद्यार्थी काल में बहुत से विद्यार्थी अपने आप मेहनत न करके परीक्षा में दूसरों की नकल करने की चेष्टा करते हैं, जेबों में कागज छिपाकर ले जाते हैं.

वे परीक्षा देते समय प्रश्न की ओर ध्यान ने देकर बराबर इस भय से भयभीत रहते हैं कि उन्हें कोई पकड़ न ले. जल्दी में वह कुछ का कुछ नकल कर जाते हैं, कभी-कभी पकड़े भी जाते हैं और दो या तीन वर्ष के लिए परीक्षा में बैठने से रोक दिये जाते हैं. ऐसे विद्यार्थी जीवन में कभी बड़ा काम नहीं कर पाते किन्तु जो स्वावलम्बी छात्र होते हैं, वे पूरे मन से अध्ययन करते हैं. परीक्षा का भूत उन्हें नही सताता. वे किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं करते.

स्वावलम्बन उनके जीवन का एकमात्र सहारा होता है. हर क्षेत्र में वे निर्भय होकर जीवनयापन करते हैं. अपने पैरों पर स्वयं खड़ा होने वाला व्यक्ति कभी दुःखी नहीं रहता. ‘स्वावलम्बन’ के गुण की प्रशंसा करते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है:

‘स्वावलम्ब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष’’

दुनियां की धन सम्पत्ति को एक तरफ और स्वावलम्बन को दूसरी ओर रखें तो दूसरा भारी रहेगा. स्वावलम्बी व्यक्ति पत्थर से नदी निकालने में, ऊसर में फूल भारी रहेगा. स्वावलम्बी व्यक्ति पत्थर से नदी निकालने में, ऊसर में फूल उगाने में समर्थ है. इसकी शक्ति के आगे दुनियां झुक जाती है.

महात्मा गांधी जैसे दुबले-पतले व्यक्ति ने शक्तिशाली ब्रिटिश सत्ता को बिना किसी हथियार के उखाड़ फेंका. यह किस शक्ति से ‘स्वावलम्बन’ की ताकत से अपनी आत्मा के बल से उन्होंने भारतवर्ष की सदियों की गुलामी पर विजय पाई. हिंसा पर अहिंसा की जीत हुई. तब तोप तलवारें भी स्वावलम्बी देशवासियों का कुछ न बिगाड़ सकीं.

स्वावलम्बन में उद्योग, परिश्रम, पुरूषार्थ सभी सम्मिलित हैं राजा रघु और कौत्स की कहानी में कौत्स के स्वावलम्बन का उत्तम उदाहरण प्राप्त होता है. कौत्स वरतन्तु का शिष्य था. शिक्षा समाप्ति पर गुरू को गुरू-दक्षिणा देने के हठ पर वरतन्तु ने नाराज होकर उससे चौहद विद्याओं के लिए एक-एक करोड़ रूपया मांगा.

निर्धन कौत्स इतना धन कहां से लाता; किन्तु वह साहसी, परिश्रमी और स्वावलम्बी था. उसने राजा रघु से याचना की और आत्मिक बल के कारण राजा रघु से अपनी इच्छा पूर्ति कराने में सफल हुआ. राजा रघु ने सम्पत्ति न होने पर भी कुबेर पर चढ़ाई करके कौत्स को उसका वांछित धन दिया. कौत्स ने परम हर्ष अनुभव किया. गुरू के चरण में 14 करोड़ की राशि रखकर वह फूला नहीं समाया. यह है स्वावलम्बी व्यक्ति के साहस की कहानी.

स्वावलम्बी व्यक्ति को कोई बाधा विघ्न नहीं सताते. वह परिस्थितियों की अनुकूलता और प्रतिकूलता की चिनता नहीं करता. वह समय का रोना नहीं रोता. हर समय कार्य करने के लिए वह उद्यत रहता है. श्री रामचन्द्र जी महल छोड़कर बिना किसी की सहायता के चौहद वर्ष जंगल मे रहे, अनेक आपत्तियों का सामना किया, किन्तु कभी अयोध्यावासियों की सहायता की अपेक्षा नहीं की.

इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण भरे हुए हैं जिनसे स्वावलम्बन की महिमा मालूम होती है. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने सड़क की बत्तियों के प्रकाश में अध्ययन किया और संसार के यशस्वी पुरूषों में उनकी गणना है. राजा हरिशचन्द्र की जीवनी से सभी परिचित है. अपने परिश्रम से उन्होंने देवताओं को भी परास्त कर दिया.

‘स्वावलम्बन’ जाति व मनुष्य सभी की उन्नति का एक मात्र सहारा है. जो जाति अपने पैरों पर खड़ा होना जानती है वह कभी परास्त नहीं की जा सकती. पश्चिमी देशों के लोग बड़े स्वावलम्बी हैं. उनका भाग्य सितारा सदैव चमकता रहता है. हम विदेशी यात्रियों को देखते हैं कि वे अपना सामान स्वयं कन्धे पर उठाकर बड़ी शान से चलते हैं, जबकि भारत में बहुत से लोग अपना सामान स्वयं उठाने में लज्जा अनुभव करते हैं.

भारत में अभी नौकरों का अधिक प्रचार है. धनी व्यक्ति अपने हाथ से काम न करके नौकरों पर आश्रित रहते हैं, जबकि पश्चिमी देशों में बच्चे, बूढ़े, नर-नारी सभी अपना काम अपने आप पूरा करते हैं. वे परावलम्बी नहीं हैं. लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के विषय में प्रसिद्ध है कि जिस समय ब्रिटिश सेना उनको पकड़ने के लिए आई तब वे भाग नहीं सके, क्योंकि उन्हें जूते पहनाने वाला कोई नहीं था. नंगे पैर भागते कैसे ? फलतः अंग्रेजों के बन्दी बन गये. ऐसे लोग जीवन का भार आप नही बन जाते हैं.

भाग्य का भरोसा छोड़कर सबको स्वावलम्बी होना चाहिए. स्वावलम्बन चरित्र का आभूषण है. आलसी लोग भाग्यवदी होते है-पुरूषार्थ भाग्य विधायक होते है. वे अपने भाग्य स्वयं बनाते हैं. कवि दिनकर के शब्दों में-

ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है.
अपना सुख उसने अपने ही भुजबल से पाया है.
प्रकृति नहीं डरकर झुकती है कभी भाग्य के बल से.
सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से, श्रम-जल से.
ब्रह्मा का अभिलेख पढ़ा करते निरूद्यमी प्राणी.
धोते वीर कुअंक भाल का बहा भ्रुवों से पानी.

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