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महाराणा प्रताप की जीवनी
महाराणा प्रताप भारत के महान योद्धाओं में से एक है. उन्होंने राजपुताना ही नहीं बल्कि पूरे भारत को गर्व करने का अवसर प्रदान किया है. दुनिया भर में भारत के जिन महापुरूषों की पहचान है उनमें से महाराणा प्रताप भी एक हैं. उन्होंने अकबर की अधीनता कभी स्वीकार नहीं की और अपनी बहादुरी और रणकौशल की वजह से उन्होंने अकबर को कभी जीतने भी नहीं दिया. यहां हम उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं और उनकी जीवनी के बारे में बताने का प्रयत्न कर रहे हैं.
महाराणा प्रताप का आरंभिक जीवन- maharana pratap history
महाराणा प्रताप की जन्म 9 मई, 1540 को उदयपुर में हुआ. उनके पिता राणा उदयसिंह कुंभलगढ़ के शासक थे. महाराणा प्रताप की जयंती भारत में दो बार मनाई जाती है. एक अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार 9 मई को और दूसरी हिंदू तिथि के अनुसार ज्येष्ठ महीने की तृतीया को मनाया जाता है और इस हिसाब से उनका जन्म दिन हर साल अलग तारीख पर आता है.
महाराणा प्रताप अपने पिता राणा उदयसिंह की पहली संतान थे. उनकी माता का नाम जयवंतीबाई था. जयवंतीबाई उदयसिंह की पहली पत्नी थी. उदयसिंह को अपनी दूसरी पत्नी धीरबाई से पांच पुत्र प्राप्त हुये. महाराणा प्रताप की आरंभिक शिक्षा कुंभलगढ़ में ही हुई. यहीं पर उन्होंने युद्ध कौशल और शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की.
प्रताप की आरंभिक शिक्षा कुंभलगढ़ के आस—पास के जंगलो में बीती. इन जंगलों में भील नामक जाति का व्यापक प्रभाव था. अपने व्यवहार और वीरता की वजह से प्रताप भीलों में लोकप्रिय हो गये और स्थानीय लोग उन्हें प्यार से कीका बुलाने लगे. कीका का अर्थ होता है, छोटा बालक.
प्रताप का जीवन शुरूआत से ही संघर्षों से भरा रहा. उनके पिता की दूसरी पत्नी जिनका नाम धीरबाई था और जिन्हें रानी भटियाणी कहा जाता था, प्रताप के साथ उनकी सद्भावना नहीं रही. वे अपने पुत्र जगमाल को राज्य का उत्तराधिकारी बनवाना चाहती थी. हालांकि प्रताप को उनके इरादो का पता था लेकिन उन्होंने कभी अपनी माता के खिलाफ कुछ नहीं कहा और एक आदर्श पुत्र की तरह ही व्यवहार किया.
महाराणा प्रताप के जन्म स्थान को लेकर विवाद
ज्यादातर स्रोत यही बताते हैं कि महाराणा प्रताप का जन्म कुंभलगढ़ में हुआ और यहीं पर उनकी आरंभिक शिक्षा हुई लेकिन कुछ दूसरे स्रोत इसके स्थान पर पाली के राजमहल में हुआ. कई स्रोत यह बताते हैं कि जब प्रताप का जन्म होने वाला था तब राजा मालदेव जोधपुर के शासक थे और उनका युद्ध बलबीर के साथ चल रहा था और उदयसिंह उसमें व्यस्त थे.
ऐसे में महाराणा प्रताप की माता को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें पाली भेज दिया गया और यहीं पर महाराणा प्रताप का जन्म हुआ. हालांकि ज्यादातर स्रोत कुंभलगढ़ को ही उनका जन्म स्थान मानते हैं और ऐतिहासिक तौर पर भी इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है.
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक भी मुश्किलों से भरा रहा. राणा उदयसिंह की तबीयत 1570 में खराब रहने लगी और राणी भटियाणी ने उनकी सेवा का काम संभाल लिया. वे चाहती थी कि उनका पुत्र जगमाल अपने पिता का उत्तराधिकारी बने.
अपनी सेवा से उन्होंने राणा उदयसिंह को प्रसन्न कर लिया और उदयसिंह ने जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. उनकी इस घोषणा से रियासत के सरदार और मंत्री सहमत नहीं थे. उनकी राय में प्रताप कहीं अधिक योग्य और उपयुक्त राजा थे.
28 फरवरी, 1572 को उदयसिंह की मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु के बाद प्रताप ने उनका संस्कार किया और शासक बनने में कोई रूचि नहीं दिखाई. उन्होंन जगमाल के शासक होने की बात पर भी कोई प्रश्न नहीं उठाया.
उधर उनके भाई जगमाल ने स्वयं को राजा घोषित कर दिया और राज्याभिषेक के लिये सभी सामंतो को बुला लिया. सामंतो को जब इस बात का पता चला तो वे जगमाल के राज्याभिषेक मे पहुंचे. प्रताप ने वहां न जाना ही उचित समझा.
सभी मंत्रियों और सामंतो ने जगमाल को यह स्पष्ट कर दिया कि इस सिंहासन पर प्रताप के अलावा कोई और बैठने के योग्य नहीं है. जगमाल और उसके समर्थको ने विरोध न करना ही उचित समझा.
इसके बाद सभी मंत्री और सामंत प्रताप को बुलाकर लाये और उनका राज्याभिषेक किया. जगमाल ने नाराज होकर मेवाड़ छोड़ दिया और वह अजमेर के राणा के यहां चले गये और वहां से अकबर के पास चले गये. महाराणा प्रताप के एक और भाई शक्ति सिंह भी इस बात से नाराज होकर अकबर से जा मिले.
महाराणा प्रताप और अकबर में संघर्ष की शुरूआत
महाराणा प्रताप जब सिंहासन पर बैठे तो मेवाड़ के हाल बहुत खराब थे. मुगलों ने राजपूतों से चित्तौड़ और मांडलगढ़ जैसे प्रमुख किले जीत लिये थे और ज्यादातर मैदानी भाग भी उनका कब्जा हो गया था.
लगातार होने वाले युद्धो की वजह से राज्य की माली हालत भी ठीक नहीं थी. अकबर ने जहां मुगलों की शक्ति का विस्तार किया था, वहीं आपसी संघर्षों की वजह से राजपूत कमजोर हुये थे.
महाराणा प्रताप जानते थे कि मुगल सिर पर खड़े हैं और उनका सामना देर—सबेर करना ही है. उन्होंने अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने पर ध्यान लगाया. गोगुंदा हालांकि उनके अधिकार क्षेत्र में था लेकिन वह अधिक सुरक्षित कुंभलगढ़ को राजधानी बनाना चाहते थे ताकि मुगलों को ज्यादा देर तक रोके रखा जा सके.
उन्होंने कुंभलगढ़ को नई राजधानी बनाया. आस—पास के राजपूत राजाओं के साथ मित्रता और संधियां की. उन्होंने पूरे मेवाड़ में एलान कर दिया की कि जब ते वे मेवाड़ को मुगलों से भगा नहीं देते तब तक कोई राजसी सुख नहीं लेंगे.
साधारण भोजन करेंगे और जमीन पर साधारण सुविधाओं के साथ शयन करेंगे. महाराणा प्रताप को लोग उनके सदव्यवहार के कारण लोग पहले ही पसंद करते थे लेकिन उनके त्याग की वजह से पूरी जनता उनके साथ हो गई.
जब अकबर को इस बात का पता लगा कि मेवाड़ की बागडोर अब महाराणा प्रताप के हाथों में आ गई है तो उसने 1572 में जलाल खां खोरची के साथ एक संधि प्रस्ताव उन्हें भेजा. दो महीने तक जलाल खां संधि करने के लिये महाराणा को मनाता रहा लेकिन प्रताप ने इसकी हामी नहीं भरी और वह खाली हाथ लौट गया. इस अस्वीकृति के साथ ही अकबर और महाराणा प्रताप के संघर्ष के बीज पड़ गये.
महाराणा प्रताप के पास मानसिंह का संधि प्रस्ताव
महाराणा प्रताप के पास वैसे तो अकबर ने कई व्यक्तियों के माध्यम से संधि प्रस्ताव भेजे लेकिन मानसिंह के संधि प्रस्ताव पर सबसे ज्यादा विवाद रहा. मानसिंह आबेंर के राजा भगवानदास के बेटे थे और आमेर के युवराज भी थे.
अकबर ने अपने पहले संधि प्रस्ताव के अस्वीकार हो जाने के बाद मानसिंह के हाथों संधि का प्रस्ताव भिजवाया. मानसिंह जब उदयपुर पहुंचे तो महाराणा प्रताप को उनके सामंता ने प्रस्ताव दिया कि वे मानसिंह से न मिले लेकिन राजपूत होने के नाते उन्होंने इस बात को अस्वीकार कर दिया और अपने बेटे अमरसिंह को मानसिंह के पास भेज दिया.
भोजन के वक्त जब मानसिंह ने अमरसिंह से पूछा कि महाराणा भोजन के लिये कब पधारेंगे तो अमरसिंह ने महाराण प्रताप के पेट में तकलीफ होने की बात कही. मानसिंह समझ गये कि महाराणा उनके साथ भोजन नहीं करना चाहते, वे क्रोधित हो गये और भोजन किये बिना ही वापस लौट गये, लौटते वक्त कह गये कि वे इस पेट की तकलीफ का चूर्ण लेकर आयेंगे.
अकबर के संधि प्रस्ताव
इसके बाद आमेर के शासक भगवानदास भी संधि प्रस्ताव लेकर आये लेकिन महाराणा ने उसे भी अस्वीकार कर दिया. अकबर ने इसके बाद अपने दरबार के नवरत्नों में से एक टोडरमल को भी प्रताप से संधि करने के लिये भेजा. टोडरमल की तमाम चतुराई भरी बातों के बावजूद महाराणा ने उनकी बात नहीं मानी और भावी युद्ध की नींव रख दी.
हल्दीघाटी का युद्ध
जब हर तरह के संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया और महाराणा प्रताप ने स्पष्ट कर दिया कि वे किसी भी तरह मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे तब अकबर ने मेवाड़ पर हमला करने की तैयारी शुरू कर दी.
अकबर जानता था कि महाराणा प्रताप कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे, वह उनकी बहादुरी के कई किस्से सुन चुका था इसलिये मेवाड़ अभियान की रूपरेखा निर्धारित करने के लिये वह खुद 1576 में अजमेर पहुंंचा.
अपने अमीरो और सरदारों के साथ लंबे विचार के बाद उसने मानसिंह को इस युद्ध की कमान सौंप कर सेनापति बना दिया. पूरे मुगल इतिहास का यह पहला अवसर था जब किसी युद्ध का प्रधान सेनापति राजपूत राजा को बनाया गया.
इस लड़ाई को अकबर किसी भी कीमत पर नहीं हारना चाहता था इसलिये उसने अपने सबसे काबिल सिपहसालारों आसफ खां, मीर बक्शी, सैयद हमीम बरहा और मुजाहिद खां को भी मानसिंह के साथ भेजा.
मानसिंह अपनी विशाल सेना के साथ मेवाड़ के लिये निकला और मांडलगढ़ पहुंचा. वहां सेना ने पड़ाव डाला. प्रताप को जब इस बात की खबर मिली तो उन्होंने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी.
क्यों किया गया हल्दीघाटी का चयन?
महाराणा प्रताप जानते थे कि मानसिंह के पास मेवाड़ की तुलना में कहीं अधिक विशाल सेना है, उसके पास संसाधन अधिक है. ऐसे में सिर्फ युद्धकौशल के बल पर ही इस युद्ध को जीता जा सकता था.
महाराणा प्रताप विशाल मुगलसेना को ही उसकी कमजोरी बना देना चाहते थे इसलिये उन्होंने एक दुर्गम घाटी को युद्ध स्थल के तौर पर चुना जहां विशाल सेना के लड़ने के लिये पर्याप्त स्थान नहीं था और जमीन भी पथरीली तथा ऊंची नीची थी.
मेवाड़ के सैनिकों को तो ऐसी जगहों पर लड़ने का अभ्यास था लेकिन मुगल सैनिकों के लिये यह बिल्कुल नई जगह थी. हल्दीघाटी की मिट्टी का रंग इतना पीला था, मानो मैदान में हल्दी बिछी हुई हो, इस वजह से ही इस घाटी को हल्दीघाटी कहा जाता था.
हल्दीघाटी बनी महाराणा प्रताप के वीरता की साक्षी
आखिर 21 जून 1876 को दोनों सेनायें आमने—सामने आ खड़ी हुईं. महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक पर बैठे युद्ध का नेतृत्व करने को तैयार थे. इस लड़ाई में उनके भाई शक्तिसिंह भी मुगलों की तरफ से लड़ने के लिये आये थे.
युद्ध की शुरूआत हुई तो उस मैदान में मुगलों के छक्के छूट गये और पहले दौर में मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा. मुगल सैनिकों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपना संतुलन बनाये या फिर तलवार चलायें.
आखिर में जब मुगल सेना को लगा कि मेवाड़ के सैनिकों को वे हरा नहीं पा रहे हैं तो मानसिंह खुद हाथी पर सवार होकर युद्ध क्षेत्र में आया. महाराणा प्रताप ने चेतक को हुंकार दी और चेतक भी आन की आन में मानसिंह के हाथी के सिर पर चढ़ बैठा. प्रताप ने मानसिंह पर अपना भाला फेंका लेकिन महावत बीच में आ गया.
इस संघर्ष में चेतक के पैर में चोट आ गयी. अपने सेनापति को घिरते देख मुगल फौज ने महाराणा प्रताप को घेर लिया लेकिन बीच में झाला मानसिंह आ गये और उन्होंने राणा का मुकुट उतारकर अपने सिर पर रखा लिया.
मुगल सैनिको ने उन्हें महाराणा प्रताप समझा और उनसे युद्ध होने लगा. उधर दूसरी ओर घायल होन के बाद भी चेतक राणा को लेकर हल्दी घाटी से दो किलोमीटर दूर बालिया गांव तक लेकर आया. यहीं उसने दम तोड़ दिया. अपने प्रिय स्वामीभक्त घोड़े की याद में प्रताप ने यहीं पर स्मारक बनवाया.
शक्तिसिंह का भ्रातृ प्रेम
जब चेतक महाराणा प्रताप को लेकर युद्ध भूमि से निकला तो मुगल सैनिको ने उसका पीछा किया. शक्तिसिंह ने जब यह देखा कि उनके भाई के प्राण संकट में हैं तो उन्होंने भी मुगल सैनिको का पीछा किया.
जब मुगल सैनिक प्रताप के पास पहुंचे तो शक्तिसिंह भी पहुंच गये और उन्होंने उन सैनिकों को ढेर कर दिया और अपने भाई को अपना घोड़ा किया ताकि वे मुगलों की गिरफ्त में आने से बच सके.
महाराणा के दो प्रतापी सेवक चेतक और रामप्रसाद
महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक को कौन नहीं जानता जिसकी स्वामिभक्ति की मिसाल दी जाती है. चेतक ने महाराणा प्रताप की जीवनरक्षा की और खुद घायल होने के बाद भी अपनी अंतिम सांस तक महाराणा की रक्षा की.
महाराणा प्रताप के पास एक हाथी भी था. उसका नाम रामप्रसाद था. उस दौर के युद्धों में हाथियों का महत्व बहुत अधिक था. रामप्रसाद इतना विशाल था कि दो शाही हाथी भी उसका सामना नहीं कर सकते थे. अपनी बहादुरी से उसने मेवाड़ की सेना को कई युद्धो में विजय दिलवाई थी.
रामप्रसाद की शोहरत इतनी ज्यादा थी कि मुगल सम्राट अकबर भी कई बार महाराणा से इस हाथी की मांग कर चुका था लेकिन प्रताप ने हर बार उसकी मांग को अस्वीकार कर दिया. हल्दीघाटी के युद्ध में भी रामप्रसाद ने मुगलों की सेना में तहलका मचा दिया.
हालांकि आखिर में मुगलो ने उसे पकड़ लिया. हल्दीघाटी के बाद इस बहादुर हाथी का कोई वर्णन नहीं मिलता है.
महाराणा प्रताप का परिवार maharana pratap family
महाराणा प्रताप ने अपने जीवन काल में 11 विवाह किये. उनका पहला विवाह महारानी अजाब्दे पंवार से हुआ. उनसे उन्हें दो बेटे maharana pratap children अमरसिंह और भगवानदास हुये. अमरसिंह आगे चलकर महाराणा प्रताप के उत्तराधिकारी बने.
इसके अलावा महाराणा प्रताप की दस पत्नियां और थी जिनके नाम अमरबाई राठौर, शहमति बाई हाडा, अलमदेबाई चौहान, रत्नावती बाई परमार, लखाबाई, जसोबाई चौहान, चंपाबाई जंथी, सोलनखिनीपुर बाई, फूलबाई राठौर और खीचर आशाबाई था.
महाराणा प्रताप का निरन्तर संघर्ष
हल्दीघाटी के युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकला. मेवाड़ की सेना से लड़ने के बाद मुगल सेना के पास आगे बढ़ने की हिम्मत शेष नहीं थी. उसके ज्यादातर सिपाही या तो मारे जा चुके थे या घायल थे.
अकबर को जब इस बात की खबर लगी तो वह खुद सेना लेकर गोगुंदा की ओर बढ़ा लेकिन महाराणा प्रताप इससे विचलित नहीं हुये और उन्होंने अकबर के खिलाफ छापामार युद्ध जारी रखा. गोगुंदा और उदयुपर के किलों को उन्होंने दोबारा जीत लिया.
छह महीने तक प्रताप से युद्ध करने के बाद भी अकबर के हाथ कुछ नहीं लगा और वह कमान अपने सेनापति को सौंप कर दिल्ली लौट आया.
इस दौरान महाराणा प्रताप ने जंगलो में निवास किया और अकबर के सिपहसालारों को लगातार धूल चटाते रहे. अकबर के कई सेनापति मारे गये.
महाराणा प्रताप ने घास की रोटियां खाई. कई दिन तक भूखे रहे लेकिन उन्होंने कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की. एक समय ऐसा आया कि उनके पास धन के नाम पर कुछ न रहा. ऐसे में एक सेठ भामाशाह ने अपनी सारी सम्पत्ति उन्हें अर्पित कर दी.
इस धन से उन्होंने सैन्य शक्ति एकत्र की और एक—एक करके उन्होंने मुगलों से अपने सारे दुर्ग वापस लेने शुरू कर दिया और एक समय ऐसा आया कि उदयपुर वापस उनके अधिकार में आ गया.
महाराणा प्रताप की मृत्यु – maharana pratap death
महाराणा प्रताप ने अपना जीवन संघर्ष में गुजारा. इसका उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और 1597 में उनका स्वास्थ्य ज्यादा खराब हो गया. उन्होंने अपने पुत्र अमर सिंह को अपने पास बुलाया और उनसे वचन लिया कि वे चित्तौड़ को भी मुगलों की अधीनता से आजाद करवायेंगे. maharana pratap death 19 जनवरी, 1597 को इस महान वीर ने अपनी आंखे सदा के लिये मूंद ली.
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