कर्ण की जीवनी Karn Biography in hindi

महाभारत की कहानियां – कर्ण

महाभारत की कहानियों में कर्ण की कथा बहुत लोकप्रिय है. कर्ण महाभारत का एक ऐसा पात्र रहा जिसे अपने जन्म से ही अन्याय का सामना करना पड़ा और इस वजह से वह क्रोध से भरा रहता था.

पूरे महाभारत के दौरान कर्ण संयमित बना रहा. उसने केवल द्रौपदी के वस्त्रहरण के दौरान एक गलती की जिसकी वजह से उसे इतिहास में एक खलनायक के तौर पर रूपायित किया गया.

कैसे हुआ कर्ण का जन्म?

कर्ण के जन्म की कथा भी बहुत रोचक है. महाराज कुंतीभोज की कन्या का नाम कुंती था. एक बार उनके राज्य में महर्षि दुर्वासा पधारे. कुंती ने दुर्वासा की बहुत सेवा की. कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने उन्हें किसी भी देवता के आवाहन से पुत्र प्राप्त होने का वरदान दे दिया.

कुंती ने इस वरदान की परीक्षा के लिये सूर्य का आवाहन किया और सूर्य से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई. जब यह घटना घटी तब कुंती का विवाह नहीं हुआ था. एक कुंवारी बालिका किस तरह पुत्र को जन्म दे सकती है, इस सवाल से बचने के लिये कुंती ने कर्ण को एक सुंदर पालने में डालकर नदी में प्रवाहित कर दिया.

किसने किया कर्ण का लालन—पालन?

karna नदी की धारा के साथ बहते हुये हस्तिनापुर पहुंच गया और वहां पर उसे हस्तिनापुत्र के राज सारथी अधिरथ ने देख लिया. वह कर्ण को उठाकर अपने घर ले आया. सारथी अधिरथ संतानविहीन था, इसलिये उसने कर्ण का लालन पालन अपने पुत्र की भांति किया. कर्ण की पालक माता का नाम राधा था इसलिये karna को राधेय नाम से भी पुकारा जाता है.

कर्ण के पिता ने उसका पालन पोषण एक राजकुमार की भांति किया और उसे वह सब शिक्षा दिलवाने की कोशिश की जो एक राजकुमार को दिलवाई जा सकती है.

वह अपने पुत्र को लेकर गुरू द्रोणाचार्य के पास भी गये ताकि वह शस्त्र शिक्षा प्राप्त कर सके लेकिन द्रोणाचार्य ने यह कहकर कि वह केवल राजकुमारों को ही शिक्षा प्रदान करते है, karna को शस्त्र विद्या देने से इंकार कर दिया. इस वजह से कर्ण के मन में अर्जुन के प्रति विद्वेष पैदा हो गया जिसे द्रोणाचार्य ने सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की उपाधि प्रदान की थी.

किसने दिया कर्ण को श्राप?

कर्ण को दो श्रापों की वजह से अपने प्राण गंवाने पड़े थे. इन दोनों श्रापों की कथा अलग है. पहला श्राप उसे अपने गुरू परशुराम से ही मिला था. अपनी किशोरावस्था में कर्ण जब शस्त्र विद्या लेने के लिये भटक रहा था तब उसे गुरू परशुराम का आश्रम दिखाई दिया.

गुरू परशुराम भीष्म से हुये युद्ध की वजह से क्षत्रियों को शिक्षा प्रदान नहीं करते थे. उस समय वे अपने शिष्य के तौर पर केवल ब्राह्मणों को ही दीक्षित करते थे.

karna ने परशुराम के पास पहुंच कर स्वयं को ब्राह्मण बताया और शिक्षा ग्रहण करने लगा. जल्दी ही वह शस्त्र और शास्त्र का ज्ञाता हो गया. उसकी प्रतिभा से परशुराम बहुत प्रभावित हुये और कर्ण परशुराम का प्रिय शिष्य बन गया.

एक दिन दोपहर को जब गुरू परशुराम विश्राम कर रहे थे तब उनके निकट एक विषैला कीड़ा आ गया. कर्ण ने उस विषैले कीड़े को अपनी हथेली के नीचे द​बा दिया.

कीड़े ने उसे काट लिया लेकिन उसने उस दर्द को बिना कोई आवाज निकाले सहन कर लिया. जब कर्ण के हाथ से रक्त की धार बहकर परशुराम के पीठ के नीचे गई तो उनकी नींद खुल गयी.

उन्होंने karna की सहनशक्ति देखकर उससे कहा कि वह क्षत्रिय के अतिरिक्त कोई और हो ही नहीं सकता. उसने अपने गुरू से झूठ बोला इसलिये गुरू ने क्रोधित होकर उसे श्राप दिया कि जब उसे अपनी विद्या की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, तब वह इसे भूल जायेगा.

दूसरा श्राप कर्ण को एक गाय ने दिया था. अंग राज्य का राजा बनने के बाद जब वह अपने विजय अभियान पर निकला तो एक राजा को परास्त करने के बाद उसके गोवंश को हांकता हुआ ले जा रहा था. इसी दौरान एक गाय के बछड़े की मृत्यु हो गई.

अपने बच्चे की मृत्यु से क्रोधित होकर गाय ने कर्ण को श्राप दिया कि उसके पैर से बने खुर के निशान में उसके रथ का पहिया तब फंसेगा, जब वह अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध लड़ रहा होगा और इसी दौरान उसकी मृत्यु होगी.

कर्ण को क्यों कहते हैं दानवीर?

कर्ण को दानवीर की उपाधी दी जाती है और महाभारत में कई जगह उसे दानवीर कर्ण कह कर पुकारा गया है. उसकी दानवीरता को लेकर भी महाभारत में दो कथाओं का जिक्र आता है. हम यहां आपको दोनों कथायें बताने का प्रयास कर रहे हैं.

पहली कथा के अनुसार जब इन्द्रप्रस्थ में यज्ञ सम्पन्न हो गया और महाराज युधिष्ठिर ने दान में अपना राजकोष ही अर्पित कर दिया तो पांडुओं को इस बात का गर्व हो गया कि उनसे अधिक दानवीर अभी तक इस पृथ्वी पर पैदा ही नहीं हुआ है.

अर्जुन ने जब यह बात कृaष्ण से कही तो भगवान कृष्ण ने उनका घमण्ड तोड़ने के लिये उन्हें साधू के वेश में परीक्षा लेने का सुझाव दिया कि दान मांगकर देखा जाये की युधिष्ठिर और karna में से कौन बड़ा दानवीर है. अर्जुन ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.

दोनों साधु वेश में पहले युधिष्ठिर के पास पहुंचे और उनसे दान के तौर पर चंदन की सूखी लकड़ी मांगी. युधिष्ठिर ने कहा कि यह बरसात का मौसम है और उनके उपवन में जितने भी चंदन के वृक्ष है, वे सब गीले हैं. ऐसा कहकर उन्होंने दान देने में अपनी असमर्थता व्य​क्त कर दी. इसके बाद अर्जुन और कृष्ण karna क पास पहुंचे और उससे यज्ञ के लिये सूखी चंदन की लकड़ी मांगी.

कर्ण तुरंत ही अंदर गया और अपने खड़ग से राजभवन के दरवाजों और खि​ड़कियों को जो चंदन की लकड़ी से बने थे, तोड़ कर उन साधूवेशी कृष्ण और अर्जुन को सौंप दिया. इस घटना के बाद अर्जुन का गर्व भंग हो गया ओर वह समझ गया कि अभी इस भू पर कर्ण से बड़ा दानवीर पैदा नहीं हुआ है.

दूसरी कथा युद्ध से पहले की है. karna अपने जन्म के समय ही कवच और कुण्डल पहन कर पैदा हुआ था. दुनिया में ऐसा कोई ​हथियार नहीं बना था जो इन कवच और कुण्डल को भेद सके.

अर्जुन के पिता इंद्र को इस बात की चिंता थी कि अगर कर्ण के शरीर से इस कवच को अलग नहीं किया गया तो युद्ध में वह अजेय हो जायेगा और अर्जुन के प्राणों के लिये खतरा बन जायेगा.

अपने पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिये इंद्र ने साधुवेश बनाकर उससे कवच और कुण्डल दान में मांगने की योजना बनाई. इस बात का पता सूर्य को चल गया.

अपने पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिये उन्होंने karna को सावधान किया कि कल सुबह जब वह सूर्य को अर्ध्य देकर आयेगा तो साधु वेश में इंद्र उससे कवच और कुण्डल मांगने आयेंगे. इस पर कर्ण ने कहा कि वह याचक को खाली हाथ लौटा ही नहीं सकता है.

इंद्र की योजना की जानकारी होने के बाद भी जब इंद्र ने कर्ण से दानस्वरूप कवच और कुण्डल मांगा तो karna ने सहर्ष अपने जीवन रक्षक कवच और कुण्डल को दान कर दिया.

इंद्र ने प्रसन्न होकर अपना दिव्यास्त्र कर्ण को प्रदान किया और साथ ही यह वरदान दिया कि जब तक यह दुनिया रहेगी, उसके जैसा कोई दूसरा दानवीर पैदा न होगा.

कर्ण और दुर्योधन की मित्रता

कर्ण और दुर्योधन की मित्रता की बहुत सुंदर व्याख्या महाभारत में की गई है. हस्तिनापुर के राजकुमार जब अपनी शस्त्र विद्या पूरी करके महल लौटे तो उनकी ​वीरता के प्रदर्शन के लिये रंगशाला में एक आयोजन किया गया. उस आयोजन में सभी कुमारों ने अपनी शस्त्र विद्या का प्रदर्शन किया.

हस्तिनापुर की जनता अर्जुन के धनुर्विद्या से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई. उसी वक्त कर्ण ने अर्जुन को रंगशाला में युद्ध की चुनौती दी. महामंत्री विदुर ने जब यह तर्क रखा कि एक राजा ही दूसरे राजा से युद्ध की चुनौती दे सकता है और कर्ण कहीं का राजा नहीं है.

इस बात पर दुर्योधन ने पांडुओं को नीचा दिखाने के लिये उसी वक्त कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया. इस तरह दुर्योधन और अर्जुन की मित्रता का आरंभ हुआ.

प्रारंभ में दुर्योधन कर्ण को अर्जुन के विकल्प के तौर पर ही मित्र बनाना चाहता था लेकिन समय के साथ कर्ण के समर्पण की वजह से वह भी कर्ण का अभिन्न मित्र बन गया. कर्ण ने दुर्योधन के सभी अच्छे बुरे कार्यों में उसकी मदद की.

जब कुंती ने उसे बताया कि वह ज्येष्ठ पांडू है और युद्ध के पूर्व उसे कौरवों का नहीं पांडुओं के खेमे में आ जाना चाहिये. इस बात को जानने के बाद भी कर्ण ने अपनी मित्रता का निर्वाह करने के लिये दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा और अपने भाइयों के विरूद्ध युद्ध किया.

किसने मारा कर्ण को?

कर्ण को भीष्म पितामह ने महाभारत के युद्ध में अपने सेनापति रहने तक हिस्सा नहीं लेने दिया. जब अर्जुन ने महाप्रतापी भीष्म को शर शैय्या पर लिटा दिया तब कर्ण को द्रोणाचार्य के सेनापतित्व में युद्ध में हिस्सा लेने का मौका मिला. इसी समय कर्ण ने इंद्र द्वारा दिये गये दिव्यास्त्र का प्रयोग करके घटोत्कच का वध किया.

कुछ समय बाद जब द्रोणाचार्य का वध धृष्टद्युमन ने कर दिया तो दुर्योधन ने कर्ण को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त कर दिया. एक दिन अर्जुन से युद्ध करते वक्त जब उसने ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया तो वह उस मंत्र को ही भूल गया क्योंकि परशुराम का श्राप प्रभावी हो गया. ठीक उसी समय उसके रथ का पहिया एक खड्डे में फंस गया जो किसी गाय की खूर की वजह से बन गया था.

कर्ण जब अपने रथ के पहिये को बाहर निकालने के लिये रथ से नीचे उतरा तो अर्जुन के एक प्राणघातक वाण ने उसके सिर को उसके धड़ से अलग कर लिया. कर्ण की मृत्यु के बाद ही दुर्योधन ने नैतिक तौर पर अपनी हार स्वीकार कर ली.

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