Table of Contents
लोकदेवता पाबूजी की कथा एवं मंदिर
पाबूजी की जीवनी
पाबूजी के पिता का नाम धांधल जी था. ये जोधपुर के राठौड़ों के मूल पुरुष राव सीहा के पौत्र और राव आसथान के पुत्र थे. लोकमान्यता है कि पाबूजी का जन्म एक अप्सरा की कोख से हुआ. अप्सरा के स्वर्गलोक गमन करने के बाद रानी कमलादे ने इनका पुत्रवत् लालन-पालन किया.
राठौड़ां में खांप धांधलां री ख्यात में पाबूजी का जन्म भाद्रपद शुक्ला पंचमी विक्रम संवत 1276 (सन् 1219 ई.) और पाबू प्रकास के रचयिता महाकवि मोडजी आषिया के अनुसार पाबूजी का जन्म सम्वत् 1299 (सन् 1242 ई.) में हुआ. इनका जन्म फलौदी के कोलू गांव में हुआ.
पाबूजी की कथा
पाबूजी की कथा विस्तार से पाबूप्रकाश में बताई गई है. पाबूजी की कथा में गोगा जी का अहम योगदान है. वे पाबूजी की चमत्कार की घटनाओं में सहभागी रहे हैं. पाबूजी और गोगाजी आपस में मिलने वाली कथा भी एक चमत्कारिक प्रसंग है. जब तेजा जी पाबूजी से मिले तो दोनों ने अपना-अपना शक्ति परीक्षण करना चाहा.
गोगाजी ने पाबू जी को चुनौती दी कि वे अपना भेस बदल कर छुप जाएंग और पाबूजी को उनको खोजना होगा. अगर पाबूजी इसमें सफल हो जाते हैं तो वे उनको मेड़ी का राज्य दे देंगे और अगर नहीं खोज पाए तो पाबूजी को अपनी भतीजी केमलदे का विवाह गोगा जी से करना होगा.
इस चुनौती को पाबूजी ने स्वीकार किया और दोनों ने अपना-अपना रूप बदल लिया. पाबू जी मेंढक बनकर तालाब में चले गए तो गोगाजी सर्प बनकर उन्हें खोज लाए. इसके बाद गोगाजी एक बिल में प्रवेश कर गए, मेंढक बने पाबूजी उन्हें खोज नहीं पाए और चुनौती हार गए. इसके परिणामस्वरूप पाबूजी को अपनी भतीजी केमलदे का विवाह गोगाजी से करना पड़ा. इस तरह पाबूजी और गोगाजी सम्बन्धी बन गए.
सम्बन्धी बनने के बाद एक दिन पाबूजी और गोगाजी घूमने के लिए निकले. रास्ते में चलते-चलते जब धूप तेज हो गई तो एक वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए ठहर गए और घोड़ों को लाने पाबूजी गए तो आगे देखते हैं कि दो बाघ खड़े हुए हैं और घोड़ों को चरा रहे हैं.
पाबूजी ने समझ लिया कि यह गोगाजी का चमत्कार है. पाबूजी वापस लौट गए और गोगाजी को कह दिया कि घोड़े मिले ही नहीं. पाबूजी छाया में बैठ गए. अब गोगाजी घोड़ों को ढूंढने गए तो आगे देखते हैं कि घोड़े एक पोखर में तैर रहे हैं. गोगाजी समझ गए कि यह पाबूजी की करामात है. उन्होंने पाबूजी को आकर कह दिया कि मुझे घोड़े नहीं मिले. तब दोनों ही उठकर वापस गए और अपने-अपने घोड़े लेकर घर को प्रस्थान किया.
एक बार पाबूजी की भतीजी केलमदे अपने पीहर आयी हुई थी. वह अपनी सहेलियों के साथ सरोवर पर स्नान करने के लिए गयी. केलमदे के गले में एक सुन्दर हार था. उस हार को गले में से खोल कर तट पर रख दिया और स्नान करने लगी. अचानक एक मगरमच्छ आया और वह हार को निगल कर चला गया.
केलमदे जब बाहर आयी और हार नहीं मिला तो वह रोने लगी. रोने की आवाज सुनकर पाबूजी दौड़े आये. केलमदे से रोने का कारण पूछा. उसने कहा कि मेरा हार मगरमच्छ ले गया. पाबूजी ने तत्काल सरोवर में से मगरमच्छ को पकड़ा और उसका पेट चीर कर हार निकालकर केलमदे को दे दिया. हार पाकर केलमदे बड़ी प्रसन्न हुई परन्तु फिर रोने लगी. इस पर पाबूजी ने पूछा कि अब क्यों रो रहीं हो?
उसने कहा मगरमच्छ को मारने को पाप मुझे लगेगा. तब पाबूजी ने मगरमच्छ और केलमदे पर करुणा करते हुए उसके पेट को सूई धागे से सी कर पानी में छोड़ दिया. पाबूजी की कृपा से मगरमच्छ जिन्दा हो गया.
राजस्थान की पहचान ऊंट को इस धरती पर लाने का श्रेय पाबूजी को ही दिया जाता है. राजस्थान में ऊंट लाने की कथा में पाबूजी के साथ एक और लोक देवता गोगाजी का भी जिक्र आता है. इस कथा के अनुसार बूढ़ोजी की पुत्री केमलदे का विवाह गोगाजी के साथ हुआ तो पाबू जी ने उन्हें दहेज में ऊंट का बच्चा देने का वचन दिया.
अपने वचन को पूरा करने के लिए वे अपनी घोड़ी कालवी पर बैठकर सात समन्दर पार गए और ऊंट का बच्चा लाकर केमलदे को दिया और अपना वचन पूरा किया. राजस्थान में ऊंट पालने वाली रेबारी जाति के लोग पाबूजी को अपना आराध्य मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं ताकि उनके ऊंट स्वस्थ रहें.
पाबूजी लंका से ऊंट का बच्चा लेकर लाये तो आते वक्त रास्ते में अमरकोट पड़ा. अमरकोट के सोढ़ों का बाग एक ऋषि के शाप के कारण पहले से सूखा हुआ था. उस बगीचे में पाबूजी के प्रवेश करते ही चमत्कार घटित हुआ और वह बाग हरा-भरा हो उठा.
फल-फूल खिल उठे और बाग में कोयलें कुकने लगी. इस चमत्कार की चर्चा सर्वत्र फैल गई. यह चर्चा अमरकोट की राजकुमारी सुपियारदे तक भी पहुंची. वे पाबूजी से बहुत प्रभावित हुई और उनसे विवाह का आग्रह किया.
इस तरह पाबूजी का विवाह अमरकोट के राजा सूरजमल सोढा की पुत्री सुपियारदे से तय हुआ. सोढ़ा राजकुमारी सुपियारदे से विवाह करने के लिये वे देवल देवी की घोड़ी कालवी मांगकर लेकर गये थे. देवल देवी ने उनसे वचन लिया था कि यह घोड़ी उनकी गायों की रक्षा करती है. अगर मेरी गायों पर कोई संकट आये तो आप तत्काल इनकी रक्षा के लिये आयेंगे.
जब सुपियारदे के साथ पाबूजी के फेरे पड़ रहे थे तभी देवल देवी की गायों को जिन्दराव खींची द्वारा हरण की जानकारी पाबूजी को दी गई. जिंदराव खींची पाबूजी का बहनोई था. पाबूजी ने देवल देवी को वचन दिया था इसलिए उन्होंने फेरे अधूरे छोड़कर गायों को बचाने पहुंच गये.
वहां उन्होंने जिन्दराव खींची से युद्ध कर गायों को छुड़ा लिया और देवल देवी को सौंपने चल दिये. तीन दिन की इन भूखी-प्यासी इन गायों को रास्ते में एक कुएं पर जब वे पानी पिला रहे थे तभी बीच जिन्दराव ने इन पर दोबारा आक्रमण कर दिया.
इस संघर्ष में पाबूजी अपने साथियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए. इस घटना के प्रभाव में पाबूजी लोकदेवता के रूप में पूजे जाने लगे. पाबूजी विक्रम सवंत 1323 (सन् 1266 ई.) में वीरगति को प्राप्त हुए.
पाबू जी की चारित्रिक विशेषताएं
लोक देवता पाबूजी वीरता, गो-रक्षा, शरणागत- वत्सलता और नारी सम्मान जैसे महान् गुणों के कारण जन-जन की श्रद्धा एवं आस्था का केन्द्र हैं. पाबूजी मात्र वीर योद्धा ही नहीं वरन् अछूतोद्वारक भी थे. उन्होंने अस्पृष्य समझी जाने वाली थोरी जाति के सात भाइयों को न केवल शरण ही दी अपितु प्रधान सरदारों में स्थान देकर उठने-बैठने और खाने-पीने में अपने साथ रखा.
लोकदेवता पाबूजी अपने वचन की पालना और गोरक्षा हेतु बलिदान हो गये. राजस्थान के लोक जीवन में ऊंटों के देवता के रूप में भी इनकी पूजा होती है. माना जाता है कि इनकी मनौती करने पर ऊंटों की रुग्णता दूर हो जाती है.
उनके स्वस्थ्य होने पर भोपे-भोपियों द्वारा ’पाबूजी की फड़’ गाई जाती है. लोकदेवता के रूप में पूज्य पाबूजी का मुख्य स्थान कोलू (फलौदी) में है. जहां प्रतिवर्ष इनकी स्मृति में मेला लगता है. इनका प्रतीकचिन्ह हाथ में भाला लिए अश्वारोही पाबूजी के रूप में प्रचलित है. भील जाति के लोग पाबूजी को इष्ट देवता के रूप में पूजते हैं.
पड़वाले भील एक कपड़े पर पाबूजी के कई लीलाओं के चित्र बनाए रखते हैं. फिर उस चित्रमय लम्बे कपड़े को प्रदर्शित कर उसके आगे भील व भीलनी रातभर पाबूजी का गुणगान गा-गाकर नाचते हैं. वह चित्रमय कपड़ा ‘पाबूजी की फड़’ कहलाता है. यह लोक गाथा के रूप में राजस्थान में प्रसिद्ध है. धांधल राठौड़ों के अलावा थोरी भी उनके प्रमुख अनुयायी हैं, जो पाबूजी की पड़ गाने के अलावा सांरगी पर उनका यश भी गाते हैं.