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शीतला अष्टमी पूजा का महत्व
शीतला अष्टमी चैत्र माह की अष्टमी को मनाई जाती है. शीतला अष्टमी के दिन को बासौड़ा भी कहा जाता हैं. इस दिन ठंडा खाना खाया जाता है. इस दिन लोग शीतला माता का व्रत भी करते है.
भारत के लगभग हर गांव और शहर में होली के सातवें या आठवें दिन आने वाले सोमवार या गुरुवार के दिन शीतला अष्टमी का पर्व मनाया जाता है.इस दिन सुबह जल्दी उठकर ठंडे जल से स्नान करें,शीतला माता की पूजा में हर तरह के स्वादिष्ट व्यंजन जो एक दिन पहले बनाये हुये हो,सिर्फ उन्ही का भोग लगाते है.
हमारे देश में यह व्रत साल में दो बार आता है. हिंदी पंचांग के अनुसार पहला चैत्र माह की अष्टमी को और दूसरा बैसाख महीने के बेदी पक्ष के किसी भी सोमवार या गुरुवार को.
चैत्र माह में इसे बासौड़ा और बैसाख में इसे बूढ़ा बासौड़ा के नाम से जाना जाता है. जो लोग चैत्र माह में ये व्रत और पूजा नहीं कर पाते है वे बैसाख महीने के बेदी पक्ष को पूजा कर के शीलता माता को प्रसन करते है.
स्वछता की प्रतीक होती है शीतला अष्टमी
वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्.
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्.
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्.
लगभग सभी जगह शीतला माता का मंदिर होता है जहा गन्धर्ब की सवारी पर शीतला माता विराजमान होती है. उनके हाथ में झाड़ू, नीम के पत्ते और कलश होता है और कहीं पत्थर ही होते हैं जिस पर छोटे छोटे छेद होते हैं. पौराणिक मान्यता है की ये देवी स्वछता की प्रतीक होती है और शीतला जी की पूजा के लिए पहले दिन ही भोजन तैयार कर बासी भोग लगाने से चेचक जैसी बीमारी नहीं होती है.
क्यों मनाते हैं बासौड़ा पर्व?
बासौड़ा,का पर्व भारतीय परंपरा के अनुसार घर में सुख-शांति और निरोगी रहने के लिए मनाया जाता है. बासौड़ा के एक दिन पहले ही रात मे विभिन्न व्यंजन बनाकर रख लिए जाते हैं.
सुबह घर व मंदिर में माता की पूजा-अर्चना कर महिलाएं शीतला माता को बासौड़ा का प्रसाद चढ़ाती हैं, उसके बाद बासौड़ा का प्रसाद अपने परिवार में बांट कर सभी के साथ मिलजुल कर बासी भोजन ग्रहण करने से घर में सुख शान्ति बनी रहती है साथ ही ऐसी मान्यता है की चेचक जैसी बीमारियाँ भी नहीं होती हैं.
ऐसे करे शीतला अष्टमी की तैयारी
अष्टमी से पहले दिन यानी सप्तमी तिथि को शाम को सूर्य ढलने से पहले खाने-पीने की वस्तुएं जैसे मीठे चावल, गुलगुले,मीठी रोटी, मीठा बाजरा, दाल, राबड़ी, बाजरे की मीठी रोटी, दाल की पूड़ी,बेसन से बनी नमकीन एवं नानाप्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किये जाते है.
अगले दिन शीतला अष्टमी को सूर्य उगने से पहले ही स्त्रिया नहा-धोकर शुद्ध वस्त्र पहन लेती है और पूजन की तैयारी करती है. इस दिन मंदिर में जाकर रोली की जगह हल्दी से तिलक लगा कर गाय के कच्चे दूध के साथ सभी चीजों का भोग लगाया जाता है.
कई जगह कुम्हार समुदाय के लोगो के घर के बाहर बने शीतला माता के मंदिर में भी पूजा की जाती है. मीठी रोटी के साथ दही और मक्खन, दूध, भिगोए हुए चने, मूंग और मोठ आदि प्रसाद रूप में चढ़ाने की परम्परा है.साथ ही महिलाये पारम्परिक गीत गाती है.
गरम वस्तुओं का सेवन वर्जित
शीतला माता के पूजन में किसी प्रकार की गरम वस्तु का न तो सेवन किया जाता है और न ही घर में इस दिन चूल्हा जलाया जाता है. पहले दिन बनाया गया भोजन ठंडा खाने की परंपरा है.ऐसा मानना है की ठंडी वस्तुएँ खाने से ही व्रत की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. और शीतला माता प्रसन होती है.
शीतला माता की कहानी
किंवदंतियों के अनुसार बासौड़ा की पूजा माता शीतला को प्रसन्न करने के लिए की जाती है,एक गांव में एक बुढ़िया माई रहती थी. हर साल शीतला अष्टमी के दिन बासौड़ा के अवसर पर वो ठंडा भोजन बनाती पूजा करतीऔर शीतला माता की विधि विधान से पूजा के बाद ठंडा भोजन करती. एक बार गांव में आग लग गई सारा गांव जल गया.उसी गांव के ठाकुर जब इस घटना को देखने गांव आये तो एक झोपड़ी बची हुई है, जिसमे एक बूढ़ी औरत बैठी हैं.
बाकी सारा गांव जलकर राख हो गया है, ठाकुर ने बुढ़िया से इसका कारण पूछा तो बुढ़िया बोली ठाकुर साहब शीतला माता की कृपा से ही मेरी झोपड़ी बच गई है,मै सदैव प्रेम पूर्वक माता की पूजा करती हु और शीतला अष्टमी के दिन ठंडा भोजन करती हूं, तब ठाकुर साहब ने सारे गांव में ढिंढोरा पिटवा दिया कि आज से सबको शीतला माता की विधि विधान से पूजा करनी हैं.
हर शीतला अष्टमी को ठन्डे खाने का भोग लगा कर ही भोजन करना हैं.ताकि माँ का आशीर्वाद सभी पर बना रहे. हे शीतला माता जिस तरह बुढ़िया पर मेहर करी उसी तरह सब पर मेहर करे. शीतला पूजन का लोकाचार में ऐसा रिवाज़ सदियों से चला आ रहा है.
सील डूंगरी पे है शीतला माता मंदिर
राजस्थान के जयपुर से लगभग 50 किलोमीटर की दुरी पर चाकसू में शीतला माता का मंदिर है अोैर शीतला माता के मंदिर का निर्माण माधोसिंह द्वितीय द्वारा करवाया गया था इसे सील डूंगरी भी कहते है.शीतला अष्टमी पर यहां दो दिवसीय लक्खी मेला आयोजित होता है.
इस स्थान पर मेला दो दिन तक चलता है. माता के दरबार में ठंडे भोजन का भोग लगाया जाता है. आमतौर पर लोग पुएं, पकौड़ी घर से बनाकर लाते है और यहां भोग लगाकर उसे खाते है. इस मंदिर में माता निकलने (चेचक )की बीमारी के बाद यहां बच्चों को ढोक लगवाने की भी परम्परा है.
करीब तीन सौ मीटर की उंचाई पर स्थित शील माता का मंदिर 500 वर्ष पुराना है. मंदिर से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित है. यह मंदिर जिस पहाड़ी पर बना हुआ है वहा के पत्थर की बनावट को माता के रूप में जाना और पूजा जाता है.
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