ये शहर बनारस है….
– आलोक आनन्द @hindihaat
बनारस का नाम सुनते ही आंखों के सामने आती है पवित्र ममतामयी गंगा जो सबके पाप समेटे बंगाल की खाड़ी की ओर निरन्तर प्रवाहमान है. बनारस को याद करते हैं तो सामने आते हैं, तुलसी बाबा और असी घाट।
संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।
इसी गंगा के असी तट पर तुलसी अपने राम के साथ एकाकार हुए. बनारस के इन घाटों का बाबा तुलसी दास के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा. अपने सबसे महान ग्रंथ श्रीरामचरितमानस की रचना बाबा ने इन्हीं घाटों पर की.
बनारस की हवा में ही दर्शन है, अध्यात्म है, ज्ञान है। क्या मालूम सिद्धार्थ को सारनाथ में क्या मिला कि वे अपना पहला प्रवचन देकर गौतम बुद्ध हो गए।
यहां हिंदी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपने कहानियों को जीवन दिया. यहां कबीर और रविदास ने समाज को दिशा दिखाने वाला साहित्य रचा. जयशंकर प्रसाद और मेरे प्यारे रामचंद्र शुक्ल की कविताओं को आकार मिला. यहां शल्य क्रिया की पहली पुस्तक सुश्रुत संहिता लिखी गई.
बनारस में जो रस है, वो कहीं और हो ही नहीं सकता. बनारस का पान, बनारस की साड़ी, बनारस का ठग और बनारस के साधू. बनारस की गलियों में आपको मकान कम मंदिर ज्यादा मिलेंगे. भगवान विश्वनाथ यहां कण—कण में बिराजते हैं और बोली का क्या कहना.
कहते हैं कि भोजपूरी की मिठास जो कानपुर से शुरू होती है, बनारस आते—आते चाशनी हो जाती है. बनारसी आदमी से ज्यादा बात करेंगे तो मधुमेह यानि डायबिटिज हो जाने का खतरा हो सकता है. यहां बोली जाने वाली भोजपूरी को काशिका भोजपूरी कहते हैं. काशिका का मतलब है— काशी की बोली.क्या मालूम था कि अपने देश एक शहर ऐसा भी है जिसकी अपनी भाषा है.
वैसे हिंदी में काशिका का एक अर्थ प्राचीन व्याकरण शाखा के ग्रन्थ काशिकावृत्ति से भी लिया जाता है. इसमें पाणिनिकृत अष्टाध्यायी के सूत्रों की वृत्ति (संस्कृत अर्थ) लिखी गयी है. इसके लेखक जयादित्य और वामन हैं. सिद्धान्तकौमुदी से पहले काशिकावृत्ति बहुत लोकप्रिय थी, फिर इसका स्थान सिद्धान्तकौमुदी ने ले लिया. यहां काशिका का अर्थ है प्रकाशित करने वाला या ‘प्र’ उपसर्ग जोड़ने पर प्रकाशिका.
बनारस को गंगा के लिए जाना जाता है लेकिन विरोधाभास है कि इसका नाम वरूणा और असी नदियों के संगम पर बसा होने के कारण पड़ा— वाराणसी. जिसे काशिका भोजपूरी ने बना दिया बनारस क्योंकि जो रस बनारस में है वो वाराणसी में कहां.
वाराणसी से तो लगता है कि कोई प्रकांड विद्वान ईश्वर के बगीचे में घुस आया है और सुंदरतम फूलो की मीमांसा कर रहा है. बनारसी आदमी अलग तबीयत का होता है, संस्कृत को उसने सिर्फ पांडित्य और गुरूकुल तक सीमित रखा है और बनारस को उसने गंगा से लेकर शिव तक सभी में जीवित कर दिया है.
विश्वनाथ मंदिर और बनारस के घाट
बाबा विश्वनाथ यहां आए अपने त्रिशूल पर काशी को टिका लिया.स्कंद पुराण के काशी खण्ड में एक श्लोक में भगवान शिव कहते हैं: तीनों लोकों से समाहित एक शहर है, जिसमें स्थित मेरा निवास प्रासाद है काशी।
बाबा विश्वनाथ को बुलाने के लिए यही गंगा किनारे ब्रह्मा ने दस अश्वमेघ यज्ञ किए और उस घाट को नाम दिया दशाश्वमेघ घाट. बनारस के घाटो में सबसे ज्यादा चर्चित. सबसे पहला जहां स्वयं शिव आए और यहीं के होकर रह गए. यहां देवी गंगा की भी भव्य आरती की जाती है।
दूसरा घाट है मणिकर्णिका घाट. जहां मां पार्वती ने शिव को अपने पास रोकने के लिए अपने कान की मणिका छुपा दी और उन्हें खोजने के लिए कहा. तीनों लोकों को चलाने वाले अंतरज्ञानी ने प्रेमवश मणिकर्णिका को खोजना शुरू किया और आज तक खोज रहे हैं.
तीसरा और सबसे सुंदर घाट यानी असी घाट. आपको बनारस और गंगा के जो नयनाभिराम दृश्य दिखते है, ज्यादातर इसी घाट के हैं. असी अपनी बैठकों और उत्सवों के लिए जाना जाता है. काशीनाथ सिंह ने तो बनारस के इसी असी घाट को अपने उपन्यास ‘काशी का असी’ का पात्र बनाया.
बनारस घराना
बनारस की बात बनारस के संगीत के बिना अधूरी है. बिस्मिल्ला खां के शहनाई के बिना अधूरी है, जिन्होंने इन घाटों पर मां गंगा को घंटो अपनी शहनाई सुनाई. शहनाई विरह का वाद्य है, वाइलिन की तरह. जाती हुई बेटियों की बधाई गाती है. ऐ गंगा तु काहे जाये परदेस, छोड़ के अपना देश।
ये भारत है न भारत, बड़ी कमाल की जगह है, ये नदियों को अपनी मां भी कहता है और बेटियां भी बना लेता है. खैर बात बनारस के संगीत की हो रही थी जिसने इस कदर कमाल किया है कि अपना संगीत खुद बनाया— बनारस घराना। भारत के समृद्ध शास्त्रीय संगीत का बेमिसाल घराना.
सितारा देवी को कौन नहीं जानता. तबले की बात ही मत कीजिए, एक से एक बेमिसाल. पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल, पंडित किशन महाराज और पंडित गुदई महाराज, किसकी थाप में ज्यादा सुर था, कोई नहीं बता सकता.
ठुमरी पैदा तो लखनऊ में हुई लेकिन जवान बनारस में हुई. बनारसी ठुमरी के दो तरह की होती है. धनाक्षरी या शायरी ठुमरी जो तेजी से गाई जाती है और इसमें तान भी तेजी से लिए जाते हैं। दूसरी ठीक इसके उलट धीरे गाई जाती है और इसमें हरेक शब्द पर जोर दिया जाता है. इसे बोल की ठुमरी कहते हैं। बनारस अंग की ठुमरी में चैनदारी है जो इसे ज्यादा लज्जत वाला बना देती है।
बनारस के बारे में जितना लिखूं कम है क्योंकि इसके बारे में तो इतने लोग इतना कुछ कह गए है कि अब कहने की कुछ बाकी नहीं. तो कभी फुर्सत हो तो आइए बनारस के किसी घाट पर डूबते हुए सूर्य को निहारिए, गंगा आरती का आनंद लीजिए, कुल्हड़ में गर्म चाय का लुत्फ उठाइए, किसी साधु के साथ शास्त्रार्थ कीजिए और बम भोले का नारा लगाइए।
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